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________________ चतुर्थ खण्ड : २७५ है वैसा अन्य प्रत्ययोंके साथ नहीं पाया जाता, इसीलिये ही मिथ्यात्व कर्मके बन्धका प्रधान कारण मिथ्यात्व परिणाम होनेसे बन्धके कारणोंमें मिथ्यात्वको परिगणित किया गया है, अन्यको नहीं। (४) दूसरे अन्य जिन हुंडक संस्थान आदि १५ प्रकृतियोंकी बन्ध व्युच्छित्ति मिथ्यात्व गुणस्थानमें होती है वे सबकी सब सप्रतिपक्ष प्रकृतियाँ हैं। इसलिये यह तो माना जा सकता है कि जब मिथ्यात्व गुणस्थानमें उन प्रकृतियोके बन्धके कारणरूप परिणाम नहीं होते तब उनका बन्ध न होकर उनकी सप्रतिपक्ष प्रकृतियोंका बन्ध होने लगता है। फिर भी अन्य सप्रतिपक्ष प्रकृतियोंका बन्ध तो मिथ्यात्वरूप परिणामोके अभावमें भी होना सम्भव है। परन्तु उन १५ प्रकृतियोंका जब भी बन्ध होगा तब मिथ्यात्वरूप परिणामके होनेपर ही होगा, अन्यथा नहीं । तब उस जीवके अनन्तानुबन्धीका उदय रहे या न रहे, इससे उन १५ प्रकृतियोंके बन्ध होने और न होनेमें कोई फरक नहीं पड़ता । जब भी उनका बन्ध होगा, मिथ्यात्व परिणामके होनेपर ही होगा यह अकाट्य नियम है । इसलिये इन १५ प्रकृतियोंके बन्धका भी प्रधान कारण मिथ्यात्व होने से मिथ्यात्वको प्रमुखरूपसे बन्धके कारणोंमें परिगणित किया गया है। (५) सामान्यतया प्रकृतिबन्धकी अपेक्षा तो आगमका यह अभिप्राय है ही, स्थितिबन्ध और अनभागबन्धकी अपेक्षा भी विचार करनेपर जिन १६ प्रकृतियोंका मात्र मिथ्यात्व गुणस्थानमें बन्ध होता है उनका उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य किसी भी प्रकारका स्थितिबन्ध या अनुभागबन्ध क्यों न हो उसका अविनाभाव सम्बन्ध भी जैसा मिथ्यात्व परिणामके साथ पाया जाता है वैसा अविरति आदि अन्य परिणामांके साथ नहीं पाया जाता, क्योंकि महाबन्धमें जहाँ भी इन १६ प्रकृतियोंके उत्कृष्टादि स्थितिबन्ध और अनुभागबन्धके स्वामीका विचार किया गया है वहाँ उसका मिथ्यादृष्टि होना अवश्यंभावी कहा गया है । उसके संक्लेश आदिरूप परिणामोंमें भेद हो सकता है पर उसे मिथ्यादृष्टि होना ही चाहिये । (६) (प्रसंगसे) यहाँ यह बात विशेषरूपसे उल्लेखनीय है कि मिथ्यात्व आदि प्रत्ययों (बन्धकारणों) का विचार अनुभागबन्धकी अपेक्षा करते हुए महाबन्धमें लिखा है मिच्छ०-णवूस०-णिरयाय०- णिरयगइ-चदुजादि-हुंड० - असंप०-णिरयाणु०-आदाव-थावरादि० ४ मिच्छत्तपच्चय ।-महाबंध पु० ४ पृ० १८६। आशय यह है कि मिथ्यात्व आदि उक्त १६ प्रकृतियोंका बन्ध मिथ्यात्व निमित्तक ही होता है । उनके बन्धमें अनन्तानुबन्धी क्रोधादिरूप असंयम परिणामका होना अनिवार्य नहीं है। इसलिये जो बन्धके कारणोंमें मिथ्यात्वको अकिंचित्कर कहकर वहाँ अनन्तानुबन्धी क्रोध आदिकी प्रधानताको सूचित करते हैं उनका वह चिन्तन आगमानुसार नहीं है, इतना उक्त आगमके परिप्रेक्ष्यमें स्पष्टरूपसे स्वीकार करना अनिवार्य हो जाता है। (७) यह तो सब स्वाध्यायी बन्धु जानते हैं कि मिथ्यात्व परिणामके अभावस्वरूप जो सम्यग्दर्शनरूप स्वभाव परिणाम होता है वह तथा अनन्तानुबन्धी आदि १२ कषायोंके अभावस्वरूप जो वीतराग स्वरूप चारित्र परिणाम होता है वह मात्र निर्जराका ही कारण स्वीकार किया गया है, बन्धका कारण नहीं । फिर भी यह देखकर कि तीर्थकर प्रकृतिका बन्ध सम्यग्दृष्टिके होता है, मिथ्यादृष्टिके नहीं, इसलिये तो महाबन्धमें तीर्थकर प्रकृतिके बन्धको सम्थक्त्व-निमित्तक कहा गया है और यह देखकर कि आहारकद्विक्का बन्ध संयमीके ही होता है, असंयमीके नहीं, आहारकद्विकके बन्धको संयमनिमित्तक कहा गया है । यथा आहारदुर्ग संजमपच्चयं । तित्थयरं सम्मत्तपच्चयं ।-महाबन्ध पु० ४, पृ० १८६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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