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________________ प्रथम खण्ड: १९ वक्तृत्व-कृतित्वके स्वयंभू .५० कमलकुमार जैन शास्त्री, 'कुमुद'-फूलचन्द्र 'पुष्पेन्दु' शास्त्री, खुरई पूज्य-पण्डितजी का सम्पूर्ण जीवन असत्को ललकारता हुआ सामाजिक, धार्मिक और राष्ट्रीय क्षेत्रमें निरन्तर सत्-क्रान्तिके बीज बोता रहा है। पूज्य वर्णीजी तथा सत्पुरुष कानजी स्वामीको निश्चय-व्यवहारके धर्म काँटे पर संतुलित करके आपने उनके स्वर्ण समन्वयत्वको वचनात्मक और रचनात्मक रूपमें अंगीकार किया। चुनौतियोंसे भरे हुए आपके प्रामाणिक व्यक्तित्वने यथार्थतत्त्व निर्णय करके समीचीनताका जो पथ-प्रशस्त किया उस पर चलनेसे तथाकथित संतों और दार्शनिकोंके ऊहापोहात्मक विकल्प स्वयमेव शान्त हो जाते हैं। इस अवसर पर हम आपके दीर्घायुष्यकी मंगल कामना करते हैं। भूली विसरी यादें .पं. भैयालाल शात्री, बीना मेरे पिता श्रीरयावलालजी और पूज्य माता जानकी बाईके चार पुत्र और एक पुत्री इस तरह कुल पाँच सन्तान हुई । इनमें मनमोले (मोहनलाल) धरमोले (धर्मदास) फुल्ले (पं० फूलचन्द शास्त्री) और भैयालाल, हम लोग ये चार भाई हैं। हम चारों भाई झांसी जिलेके अन्तर्गत सिलावन गाँवमें छोटी-मोटी दुकानदारी, बन्जी, साहूकारी एवं खेती कार्य करते थे । हमारे गाँवमें स्कूल न होनेसे गाँवके लड़कोंके साथ रोटी बाँधकर तीन मील दूर खजुरिया गाँव पैदल जाते थे। मेरे भाई पं० फूलचन्दजीकी बचपनमें धर्मके प्रति विशेष रुचि थी । अतः वे मेरी बहिनके गाँव मवई चले गये जहाँ उनको तत्त्वार्थसूत्रको पढ़नेमें निपुणता प्राप्त हुई। इससे हम सभीको बहुत खुशी हुई क्योंकि उस समय तत्त्वार्थसूत्र मात्र पढ़ लेने वालेको भी अच्छा पण्डित माना जाता था। भाई साहब घरके काम करते, पर विशेष रुचि न होनेसे उदासीन जैसे ही रहते थे। पढ़ने और धर्म काममें ही इनका ज्यादा मन रहता था। साढ़मलसे श्री धर्मदास, धर्मचन्द, मनोहरलाल, पं० हीरालालजी तथा मेरे गुरु पं० शीलचन्द जी के साथ वे इन्दौर पढ़नेके लिए गये और वहाँ पं० घनश्यामदासजीसे पढ़ने लगे किन्तु अस्वस्थ होनेके कारण घर वापस आ गये और घरके काममें लग गये । बन्जीसे थोड़ा बहुत जो मिल जाता था उससे बड़ी कठिनाई पूर्वक जिस किसी तरह परिवारका गुजारा चलाते थे। बड़े कष्ट और गरीबीके वे दिन । भाई साहबको ज्ञानी बननेकी ही विशेष अभिरुचि थी। सौभाग्यसे साढूमलमे दानवीर श्री लक्ष्मीचन्द जीने श्री महावीर दिगम्बर जैन पाठशालाका शुभारम्भ कराया और इन्दौरसे पं० घनश्यामदासजीको अध्यापन कार्य हेतु बला लिया । बहत ही सरल और सहृदयतासे वे सभीको पढ़ाते थे । करीब ५ वर्ष बाद साढ़मलसे अध्ययन करके मेरे भाई साहब एवं पं० किशोरीलालजीको आगेका अध्ययन पूरा करनेके उद्देश्यसे मुरैनाके जैन सिद्धान्त विद्यालय भेज दिया गया। मुरैनामें उद्भट विद्वानोंसे जैन धर्मशास्त्रोंका अध्ययन कर विद्वत्ता प्राप्त की। अध्ययनके बाद भाई सा० ने बनारस, बीना, जयपुर, नातेपुते आदिके जैन विद्यालयोंमें अध्यापन कार्य किया, उसके बाद जिनवाणीकी सेवाके लिए जैन ग्रन्थोंके सम्पादन और अनुवाद आदि साहित्यिक गतिविधियोंको जीवनका मुख्य उद्देश्य बनाया । भाई सा० का कुटुम्बके प्रति हमेशा उदारभाव रहा है। हम सभी लोगोंको बीना लाने और व्यापारमें लगानेका श्रेय भाई सा० को है । हम सब उनके आभारी हैं । आज सम्पूर्ण जैन समाज उनका अभिनन्दन कर रही है यह सुनकर और जानकर हम सभीको परम प्रसन्नता और गौरव है कि हमारे घर ऐसा 'रत्न' पैदा हुआ, जो जिनवाणीकी अनेक प्रकारसे सेवा करके जीवनको सार्थक बना रहे हैं । हम सभीकी हार्दिक शुभकामना है कि वे शतायु हों। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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