SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 299
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २६२ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ असातावेदनीयके द्विस्थानबन्धक जीव सबसे विशुद्ध होते है । अर्थात् मन्द कषायवाले होते हैं। उनसे त्रिस्थानबन्धक जीव संक्लिष्टतर होते हैं । अर्थात् अति उत्कट संक्लेश युक्त होते हैं। उनसे चतुःस्थानबन्धक जीव संक्लिष्टतर होते हैं । अर्थात अत्यन्त बहुत कषायवाले होते हैं। इस कथनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि केवल कषायकी मन्दता होना इसका नाम विशुद्धि और कषायकी तीव्रताका होना इसका नाम संक्लेश नहीं है, क्योंकि कषायकी मन्दता और तीव्रता विशद्धि और संक्लेश दोनोंमें देखी जाती है, अत आलम्बन भेदसे विशुद्धि और संक्लेश समझना चाहिए । जहाँ सच्चे देव, गुरु और शास्त्र तथा दया दानादिका आलम्बन हो वह कषाय विशुद्धि स्वरूप कहलाती है तथा जहाँ संसारके प्रयोजन भूत पंचेन्द्रियोंके विषयादि आलम्बन हो वह कषाय संक्लेश स्वरूप कहलाती है। कषायकी मन्दता और तीव्रता दोनों स्थलोंपर सम्भव है । इस हिसाबसे ज्ञानावरणीय कर्मके स्थिति बन्धका विचार करनेपर विदित होता है कि साता वेदनीयके चतुःस्थान बन्धक जीव ज्ञानावरणीयका जघन्य स्थिति बन्ध करते हैं। यहाँ दो बातें विशेष ज्ञातव्य है । प्रथम यह कि उक्त जीव ज्ञानावरणीयका जघन्य स्थिति बन्ध ही करते हैं ऐसा एकान्तसे नहीं समझना चाहिए । किन्तु ज्ञानावरणका अजघन्य स्थितिबन्ध भी उक्त जीवोंके देखा जाता है। द्वितीय यह कि यहाँ ज्ञानावरण कहनेसे सभी ध्रुव प्रकृतियोंको ग्रहण करना चाहिए । साता वेदनीयके त्रिस्थान बन्धक जीव ज्ञानावरणका अजघन्य अनुत्कृष्ट स्थितिबन्ध करते हैं। यहाँ यद्यपि अजघन्यमें उत्कृष्टका और अनुत्कृष्टमें जघन्यका परिग्रह हो जाता है, पर उक्त जीव ज्ञानावरणकी उत्कृष्ट और जघन्य स्थितिका बन्ध नहीं करते हैं, क्योंकि उक्त जीवोंमें इन दोनों स्थितियोंके बन्धकी योग्यता नहीं होती है। साता वेदनीयके द्विस्थान बन्धक जीव सातावेदनीयका ही उत्कृष्ट स्थितिबन्ध करते हैं। यहाँ उक्त जीव सातावेदनीयका ही उत्कृष्ट स्थितिबन्ध करते हैं इस कथनका यह आशय है कि वे ज्ञानावरण कर्मकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध नहीं करते । यह आशय नहीं कि वे मात्र सातावेदनीय कर्मकी उत्कृष्ट स्थितिका ही बन्ध करते हैं । किन्तु वे साता वेदनीयको अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्ध करते हैं। उक्त कथनका यह आशय यहाँ समझना चाहिए । असातावेदनीयके द्विस्थान बन्धक जीव ज्ञानावरगीयकी वहाँ सम्भव जघन्य स्थितिका बन्ध करते हैं त्रिस्थान बन्धक जीव ज्ञानावरणकी अजघन्य अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करते हैं, क्योंकि इनके उत्कृष्ट संक्लेशरूप और अति विशुद्ध दोनों प्रकारके परिणाम नहीं पाये जाते। चतुस्थान बन्धक जीव असाताके ही उत्कृष्ट स्थिति बन्धके साथ ज्ञानवरणका भी उत्कृष्ट स्थिति बन्ध करते है। यहाँपर ज्ञानवरण कर्मकी मुख्यतासे उसके जघन्य और उत्कृष्ट स्थितिबन्धके स्वामीका विचार पिया । उक्त तथ्योंको ध्यानमें रखकर इसी प्रकार अन्य सात कर्मोके विषयमें भी जान लेना चाहिए। ७. एक जीवकी अपेक्षाकाल-अन्तरप्ररूपणा स्थितिबन्ध चार प्रकारका है-जधन्यस्थितिबन्ध, उत्कृष्टस्थितिबन्ध, अजघन्यस्थितिबन्ध और अनुत्कृष्टस्थितिबन्ध । हम पहले सादि आदि चारों अनुयोग द्वारोंकी अपेक्षा उत्कृष्ट आदि चारों स्थितिन्बधोंका तथा स्वामित्वका ऊहापोह कर आये हैं उसे ध्यानमें रखकर किस कर्मके किस स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल कितना होता है यह एक जीवकी अपेक्षा काल और अन्तर प्ररूपणामें बतलाया गया है। इसी प्रकार नाना जीवोंकी अपेक्षा क्षेत्र आदि शेष अनुयोग द्वारोंका विचार कर लेना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy