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________________ २६० : सिद्धान्ताचार्यं पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ प्रथम अनुयोगद्वारका नाम अडाच्छेद है अढा नाम कालका है। ज्ञानावरणादि किस कर्मका जघन्य और उत्कृष्ट कितना स्थितिबन्ध होता है, किसकी कितनी आबाधा होती है और आबाधाको छोड़कर जहाँ जितनी कर्मस्थिति अवशिष्ट रहती है उसमें निषेक रचना होती है, इस विषयको इस अनुयोगद्वारमें निवद्ध किया गया है। शेष अनुयोगद्वारोंमें अपने-अपने नामानुसार विषयको निबद्ध किया गया है । सर्वं स्थितिबन्ध और उत्कृष्ट स्थितिबन्धमें यह अन्तर है कि सर्वस्थितिवन्ध अनुयोगद्वारमें उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होनेपर सभी स्थितियोंका अन्ध विवक्षित रहता है और उत्कृष्ट स्थितिबन्ध अनुयोगद्वारमें उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होनेपर मात्र अन्तकी उत्कृष्ट स्थिति परिगृहीत की जाती है। यहाँ इतना विशेष और जान लेना चाहिए कि अनुत्कृष्टमें उत्कृष्टको छोड़कर जघन्यसहित सबका परिग्रह हो जाता है तथा अजघन्यमें जवन्यको छोड़कर उत्कृष्ट सहित सबका परिग्रह हो जाता है। उक्त नियम प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्ध में सर्वत्र लागू होते हैं । मात्र जहाँ प्रकृति आदि जिस बन्धका कथन चल रहा हो वहाँ उसके अनुसार विचार कर लेना चाहिए। ५. सादि-अनादि ध्रुव - अध्रुव स्थितिबन्ध स्थितिबन्ध चार प्रकारका होता है- उत्कृष्ट स्थिति बन्ध, अनुत्कृष्ट स्थिति बन्ध, जघन्य स्थिति बन्ध और अजघन्य स्थिति बन्ध । इन चारों प्रकारके स्थिति बन्धों में से कौन स्थितिबन्ध सादि आदिमेसे किस प्रकार का होता है इसका विचार इन चारों अनुयोग द्वारोंमें किया गया है । यथा ज्ञानावरणादि सात कर्मो का उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संशी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक के अपने योग्य स्वामित्व के प्राप्त होनेपर ही होता है। इसलिए यह सादि है और चूंकि वह नियतकाल तक ही होता है उसके बाद पुनः जब उसके योग्य स्वामित्व प्राप्त होता है तभी वह होता है, मध्य कालमें नहीं, इसलिए वह उत्कृष्ट स्थिति बन्ध अध्रुव है । तथा मध्यके कालमें जो उससे न्यून स्थिति बन्ध होता है वह सब अनुत्कृष्ट स्थितिबन्ध है । यतः वह उत्कृष्ट स्थिति बन्धके बाद ही सम्भव है और तभी तक सम्भव है जब तक पुनः उत्कृष्ट स्थिति बन्ध प्राप्त नहीं होता। इसलिए यह भी सादि और अध्रुव है । जघन्य स्थिति बन्ध क्षपक श्रेणी में मोहनीयका नौवें गुणस्थानमें और शेष छहका दसवें गुणस्थानके अन्तिम समयमें होता है । इसलिए यह भी सादि और अध्रुव है । किन्तु पूर्व अनादि कालसे उक्त सातों कर्मो का अनादि जो स्थितिबन्ध होता है वह जघन्य स्थितिबन्ध कहलाता है क्योंकि इसमें जघन्य स्थिति बन्धको छोड़कर शेष सबका परिग्रह हो जाता है। इसलिए तो वह अनादि है और ध्रुव है तथा उपशम श्रेणीमें ग्यारहवें गुणस्थान । से गिरनेपर पुनः इन कर्मोंका यथा स्थान बन्ध प्रारम्भ हो जाता है आयुकर्मका बन्ध कादाचित्क होनेसे उसमें सादि और अध्रुव ये दो ही जाय इसलिए इन चारों अनुयोग द्वारोंका वहाँ स्पष्टीकरण किया है। ६. बन्ध स्वामित्व प्ररूपणा इसलिए वह सादि और अध्रुव है । विकल्प बनते हैं विशेष जानकारी हो स्थिति बन्धके स्वामित्वको समझने के लिए कुछ तथ्योंका यहाँ विचार किया जाता है। यथासामान्य नियम यह है कि सातावेदनीय आदि प्रकृतियोंके बन्ध योग्य परिणामोंको विशुद्धि कहते हैं और असातावेदनीय आदि प्रकृतियोंके बन्ध योग्य परिणामोंको सं क्लेश कहते हैं। इस नियम के अनुसार ज्ञानावरणादि सभी कर्मोंका स्थिति बन्ध किस प्रकार होता है इसका यहाँ विचार करना है । बन्ध चार प्रकारका है - प्रकृति बन्ध, स्थिति बन्ध, अनुभाग बन्ध और प्रदेश बन्ध । इनमें से प्रकृति बन्ध और प्रदेश बन्ध योगसे होता है तथा स्थिति बन्ध और अनुभाग बन्ध कषायसे होता है। ऐसा होते हुए भी यदि कषाय - उदय स्थानोंको ही स्थितिबन्धाध्यवसान स्थान मान लिया जावे तो कषाय उदय स्थान के बिना मूल प्रकृतियोंका बन्ध न हो सकने से सब प्रकृतियोंके स्थितिबन्धाप्यवसानस्थान समान हो जायेंगे । अतएव सब मूल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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