SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 288
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चतुर्थ खण्ड : २५१ विशेष धर्म भिन्न दो द्रव्योंका कभी भी नहीं हो सकता है। वह किसी एक द्रज्यका ही होना चाहिये । इस दृष्टिसे विचार करनेपर ज्ञान यह आत्माका धर्म होनेके कारण और भावमन यह ज्ञान विशेष होनेके का ण वह आत्माका हो ठहरता है। उसे पौदगलिक कभी भी नहीं कहा जा सकता है । ऐसे स्थलोंमें 'भावमनको सर्वथा पौद्गलिक माननेपर' यह वाक्य प्रयोग ही अयोग्य है। अब जो अध्यात्मशास्त्रोंमें भावमनको पौद्गलिक कहा जाता है इसका अर्थ यह नहीं है कि वह पदगलके धर्म है, पुदगलमें और इन धर्म में गुणाणी सम्बन्ध है। यह कुछ भी नहीं होते हुए भी निश्चयदृष्टि इन औपाधिक भावोंको आत्माका ग्रहण नहीं करता है अतएव वे उपाधिजन्य अर्थात् पौद्गलिक कहे जाते हैं। आगे चलकर पंडितजीने "द्रव्यमन मात्र रूपादिगुणानी युक्त असले मुळे तें पौद्गलिक आहे' ऐसा लिखा है सो पंडितजीके इस एकान्तका खंडन आगे चलकर स्वयं पंडितजीके द्वारा ही आभ्यन्तर निर्वृत्ति रूप द्रव्यमनको आत्माके प्रदेश रूप स्वीकार लेनेसे हो जाता है। इसके आगे जो कुछ लिखा गया है उस विषयमें विशेष कुछ लिखनेकी आवश्यकता नहीं है। यदि भावमन पौदगलिक होता तो वह मर्तिक पदार्थको ही जानता परन्तु शुद्ध आत्मानुभव यह इंद्रियका विषय नहीं है । इस आत्मानुभवरूप विषयमें स्पर्शनादिक इन्द्रियोंका उपयोग नहीं होता है परन्तु भावमनका मात्र उपयोग होता है। कारण वह मूर्त और अमतं दोनोंको जानता है। पंचाध्यायीकारने तो आत्मानुभवके समय मन यह ज्ञान ही होता है ऐसा स्पष्ट कहा है । इस सम्बन्धमें पंचाध्यायीके आधार यहाँपर देने में विशेष कुछ हानि नहीं है । पंडित जीने जो यह लिखा है कि 'यदि भावमन पौद्गलिक होता तो वह मूर्तिक पदार्थको ही जानता' इस वाक्यका सीधे शब्दोंमें यही अर्थ होता है कि जो विचारे ज्ञान केवलं मूर्तिक पदार्थको जानते हैं वे पौद्गलिक हैं। ऐसा अर्थ करनेपर अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और इन्द्रियज्ञान ये सब पौद्गलिक ठहर जावेंगे। परन्तु पंडितजी ऐसा कथन करते समय यह बिल्कुल ही भूल जाते हैं कि ये ज्ञान भी भावमनकी तरह आत्मोपादानकारणक और क्षायोपशमिक है । फिर भावमन तो पौद्गलिक नहीं और ये ज्ञान विचारे पौद्गलिक ? यह कैसा न्यार है । सब जगह न्याय एक ही लागू होता है। आशा है पंडितजी अपने उपर्युक्त वाक्यका योग्य विचार करेंगे । आगे चलकर पंडितजीने जो यह लिखा है कि आत्मानुभवमें इंद्रियोंका उपयोग नहीं होता है यह बात हमें भी मान्य है परन्तु इससे इन्द्रियज्ञान पौद्गलिक और भावमन आत्मीक नहीं सिद्ध हो सकता है, यह विशेषता क्षयोपशमकी समझना चाहिये। श्रेणी तो दोनोंकी एक ही है। भावमन ऐसा क्षायोपशमिक ज्ञान है कि उसमें अनभव करने और विचार करनेकी सामर्थ्य उत्पन्न होती है इतने मात्रसे वह क्षयोपशम रूप जातिको उल्लंघन नहीं कर सकता है । वह तो विषय भेद है जाति भेद नहीं। मतिज्ञान आदि चारों ज्ञानोंमें विषय भेदसे ही भेद है जाति तो चारोंकी क्षायोपशमिक ही है। आगे चलकर पंडितजीने जो यह लिखा है कि आत्मानुभवके समय भावमन स्वयं ज्ञान ही होता है । यहाँपर इतना अवश्य पछना है कि जिसको आत्मानभव नहीं होता है उसका भावमन क्या ज्ञानरूप होता है या नहीं ? यदि होता है तो फिर यहाँ और कौनसी विशेषता उत्पन्न हो गई। यदि नहीं होता है तो आत्मानुभवको छोड़कर शेष दशामें भावमन यह पौदगलिक ही ठहरेगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy