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________________ २२४ सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्य द्वारा वस्तुका कथन करते हैं तब वस्तुमें रहनेवाले अन्य सब धर्म अविवक्षित रहते हैं, इसलिये उनको सूचित करने के लिये स्यात् ' पदका प्रयोग किया जाता है। यदि 'स्यात्' पदका प्रयोग न किया जाय तो सभी प्रयोग अनुक्ततुल्य हो जाते हैं। स्यात् पद अनेकान्तका द्योतक है इस अर्थको स्पष्ट करते हुए आप्तमीमांसा में आचार्य समन्तभद्र कहते हैं वाक्येष्वनेकान्तद्योतो गम्यं प्रति विशेषणम् । स्यान्निपातोऽयं योगित्वात्तत्र केवलिनामपि ।। १०३ ।। हे भगवन् ! आपके शासन में 'स्यादस्त्येव जीव' या 'स्यान्नास्त्येव जीवः' इत्यादि वाक्योंमें अर्थके सम्बन्धवश 'स्यात्' पद अनेकान्तका द्योतक होता है और गम्य अर्थका विशेषण होता है प्रकृतमें 'स्यात्' पद निपात है । यह केवलियों और श्रुतकेवलियों दोनोंको अभिमत है । करने के युक्त यहां आचार्य समन्तभद्रने यह स्पष्ट किया है कि सभी प्रत्येक भङ्गको 'स्यात्' पदसे दो प्रयोजन हैं । प्रथम प्रयोजनके अनुसार तो प्रत्येक वाक्य में 'स्यात्' पद अनेकान्तका द्योतक होता है, क्योंकि निपात द्योतक होते हैं ऐसा वचन है । दूसरे प्रयोजनके अनुसार जिस वाक्य में जो गम्य अर्थ है उसका विशेषण होनेसे वह अपेक्षा विशेषको सूचित करता है। इससे हम जानते हैं कि प्रथम भंगमें 'जीव है हो' यह जो कहा गया है वह अपेक्षा विशेषसे ही कहा गया है और दूसरे भंगमें 'जीव नहीं ही है' यह जो कहा गया है वह भी तो अपेक्षा विशेषसे ही कहा गया है। इस प्रकार प्रत्येक भंग में 'स्यात्' पदका प्रयोग होनेसे एक 'धर्मोका अनुक्त स्वीकार हो जाता है दूसरे विवक्षित भंग किस अपेक्षासे कहा गया है इसका सूचन हो जाता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । सप्तभंगी में सात भंगों के प्रत्येक पदकी सार्थकताका निर्देश हम पहले ही कर आये हैं । एक बात यहाँ विशेष जाननी चाहिये कि कहीं किसी वक्ताने स्यात् पदका प्रयोग नहीं भी किया हो तो वहाँ वह है ही ऐसा समझ लेना चाहिए क्योंकि ऐसा वचन भी है कि 'स्यात्' शब्द के प्रयोगका आशय रखनेवाला वक्ता कदाचित् 'स्यात्' शब्दका प्रयोग नहीं भी करता है तो भी वह प्रकरण आदिको ध्यान में रख कर समझ लिया जाता है। कहा भी है तथा प्रतिज्ञाशयतोऽप्रयोगः । जिसके अभिप्रायमें उस प्रकारकी प्रतिज्ञा है, वह 'स्यात्' शब्दका प्रयोग नहीं करता तो भी कोई दोष नहीं है । ९. कालादि आठकी अपेक्षा विशेष खुलासा पहले हम यह बतला आये हैं कि प्रथम भंगमें यतः द्रव्यार्थिकनयकी मुख्यता रहती है, इसलिये उसके द्वारा कालादिकी अपेक्षा अभेदवृत्ति करके पूरी वस्तु स्वीकार कर ली जाती है और दूसरे भगमे यतः पर्याया किनकी प्रधानता रहती है. इसलिये वहाँ कालादि की अपेक्षा अभेदोपचार करके उसके द्वारा समग्र वस्तु स्वीकार कर ली जाती है । अतः प्रकृतमें उन कालादि आठका निर्देश करके उन द्वारा प्रकृत विषय पर विशेष प्रकाश डालते हैं । वे कालादि आठ ये हैं- काल, आत्मरूप अर्थ, सम्बन्ध, उपकार, गुणिदेश, संसर्ग और शाब्द । इन आठकी अपेक्षा खुलासा इस प्रकार है (२) 'कथंचित् है ही जीव' यहाँ अस्तित्वविषयक जो काल है वही काल अन्य अशेष धर्मोका है इसलिये समस्त धर्मों की एक वस्तुमें कालकी अपेक्षा अभेदवृत्ति बन जाती है। (२) जैसे अस्तित्व वस्तुका आत्मस्वरूप है वैसे अन्य अनन्त धर्म वस्तुके आत्मस्वरूप हैं, इसलिये समस्त धर्मोकी एक वस्तुमें आत्मस्वरूपकी अपेक्षा अभेदवृत्ति बन जाती है । (३) जो द्रव्य अस्तित्वका आधार है वही अन्य अनन्त धर्मोका आधार होने से अर्थकी अपेक्षा समस्त धर्मों की एक वस्तुमें अभेदवृत्ति बन जाती है। (४) वस्तुके साथ अस्तित्वका जो तादात्म्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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