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________________ २२२ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ प्रकारके धर्म है। जो साधारण धर्म हैं वे अन्य द्रव्योंसे आत्मद्रव्यके भेदक नहीं हो सकते । जो असाधारण होकर भी पर्यायरूप है वे भी एक त्रिकालवर्ती आत्मद्रव्यका ख्यापन करने में असमर्थ हैं । और जो असाधारण होकर भी त्रिकाल व्याप्ति समन्वित है जैसे चारित्र, सुख और वीर्य आदि सो वे भी बोधगम्य होनेपर ही माने जाते हैं । अतः वे स्वयं आत्मतत्त्वको अन्य द्रव्योंसे पृथक् करने में असमर्थ हैं । रहा दर्शन सो वह अनाकारस्वरूप है। एक ज्ञान ही ऐसा है जो अनुभवगोचर है, इसलिए उस द्वारा आत्मतत्त्वको अन्य द्रव्योंसे पृथक् करना सम्भव है, इसलिए जिनागममें आत्माको ज्ञानमात्र स्वीकार किया गया है। म तत्त्वार्थवार्तिकमें लक्षण किसे कहते हैं इसका निर्देश करते हुए बतलाया है परस्परव्यतिकरे सति येनान्यत्वं लक्ष्यते तल्लक्षणम् । सभी पदार्थ (परक्षेत्रपनेकी अपेक्षा) परस्पर मिलकर रहते हैं. इसलिए जिसके द्वारा एक पदार्थको दूसरे पदार्थसे जुदा किया जाता है उसे लक्षण कहते हैं । इस दृष्टिसे विचार करनेपर द्रव्य (सामान्य) गुण (प्रत्येक द्रव्य व्यापी त्रिकाली विशेष धर्म) और पर्याय (प्रत्येक द्रव्यव्यापी एक समयवर्ती धर्मविशेष) का लक्षण स्वतन्त्र रूपसे प्रतीतिमें आता है। यही कारण है कि प्रकृतमें इसी दृष्टिको माध्यम बना कर अनेकान्तस्वरूप वस्तुकी व्यवस्था की गई है । एक ही वस्तु दूसरी वस्तुसे अत्यन्त भिन्न है यह तो है ही। उसे दिखलाना यहाँ मुख्य प्रयोजन नहीं है। यहाँ तो एक ही वस्तु द्रव्य, गुण और पर्यायपनेकी अपेक्षा कैसे तत्-अता, एक-अनेक, सत्-असत और नित्य-अनित्य स्वरूप है यह दिखलाया है। जैनदर्शनमें प्रत्येक वस्तुको अनेकान्तस्वरूप दिखलाना यह मुख्य प्रयोजन है। अन्यथा प्रत्येक वस्तु स्वयंमें अनेकान्तस्वरूप नहीं सिद्ध होती। तत्त्वार्थवार्तिक अ० सूत्र ४२में जीव पदार्थ अनेकान्तात्मक कैसे है इसका विचार करते हुए लिखा है-- जीव पदार्थ एक होकर भी अनेकरूप है, क्योंकि वह अभावसे विलक्षण स्वरूपवाला है । वस्तुतः देखा जाय तो अभावमें कोई भेद दृष्टिगोचर नहीं होता। उसके विपरीत भावमें तो अनेक धर्म और अनेक भेद दृष्टिगोचर होते हैं । जो घटका उत्पाद है वही पट आदि अनन्त पदार्थोंका उत्पाद नहीं है । इस प्रकार स्वकी अपेक्षा उत्पाद एक होकर भी उसमें परकी अपेक्षा अनन्तरूपता घटित हो जाती है। यह एक उदाहरण है। परसे भेद दिखलानेकी अपेक्षा इस प्रकार सर्वत्र समझ लेना चाहिये। इस प्रकार लोकमें जितने भी सदभावरूप पदार्थ हैं उनमेंसे प्रत्येक कैसे अनेकान्तस्वरूप हैं इसका संक्षेपमें ऊहापोह किया। ६. स्याद्वाद और अनेकान्त अब अनेकान्तस्वरूप वस्तुका वचन मुखसे विचार करते हैं। अनेकान्तस्वरूप एक ही वस्तुका शब्दों द्वारा कथन दो प्रकारसे होता है-एक क्रमिकरूपसे और दूसरा योगपद्यरूपसे । इनके अतिरिक्त कथनका तीसरा कोई प्रकार नहीं है। जब अस्तित्व आदि अनेक धर्म कालादिकी अपेक्षा भिन्न-भिन्न रूपसे विवक्षित होते हैं तब एक शब्दमें अनेक धर्मों के प्रतिपादनकी शक्ति न होनेसे उनका क्रमसे प्रतिपादन किया जाता है । इमीका नाम विकलादेश है। परन्तु जब वे ही अस्तित्वादि धर्म कालादिकी अपेक्षा अभेदरूपसे विवक्षित होते हैं तब एक ही शब्द द्वारा एक धर्ममुखेन तादात्म्यरूपसे एकत्वको प्राप्त सभी धर्मों का अखण्डरूपसे युगपत् कथन हो जाता है । इसीका नाम सकलादेश है। विकलादेश नयरूप है और सकलादेश प्रमाणरूप है। कहा भी है-विकलादेश नयाधीन है और सकलादेश प्रमाणाधीन है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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