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________________ चतुर्थखण्ड : २१९ कषायरूप ही रहना है तातै झूठ बोलै है । मोक्षकी साँची अभिलाषा होय तो ऐसी युक्ति काहे कौं बनावै । संसारके कार्यनि विषै अपना पुरुषार्थतें सिद्धि न होती जाने तौ भी पुरुषार्थकरि उद्यम किया करें । यह। पुरुषार्थ खोई बैठे । मो जानिए है, मोक्षको देखादेखी उत्कृष्ट कहै है । याका स्वरूप पहिचानि ताको हितरूप न जाने है। हित जानि जाका उद्यम बन सो न करे वह असंभव है । प्रकृत में यह बात विशेष ध्यान देने योग्य है कि शास्त्रों में जहाँ-जहाँ कालादिलब्धिका उल्लेख किया है। वहाँ उसका आशय मुख्यतया आत्माभिमुख होनेके लिए ही है, अन्य कुछ आशय नहीं है । इसे स्पष्ट करते हुए आचार्य जयसेन पञ्चास्तिकाय गाथा १५० - १५१ की टीकामें कहते हैं— यदायं जीवः आगमभाषया कालादिलब्धिरूपमध्यात्मभाषया शुद्धात्माभिमुखपरिणामरूपं स्वसंवेदनज्ञानं लभते । जब यह जीव आगमभाषाके अनुसार कालादिलब्धिरूप और अध्यात्मभाषाके अनुसार शुद्धात्माभिमुख परिणामरूप स्वसंवेदनज्ञानको प्राप्त होता है । १२. उपसंहार इस प्रकार यहाँ तक जो हमने उपादानकारणके स्वरूपादिकी मीमांसा के साथ प्रसंगसे उपादानकी योग्यता और स्वकालका तथा उसका अविनाभावी व्यवहारकालका विचार किया उससे यह स्पष्ट हो जाता है कि जो कर्म निमित्त कहे जाते हैं वे भी उदासीन निमित्तोंके समान कार्योत्पत्ति के समय मात्र निमित्तमात्र होते हैं, इसलिए जो व्यवहाराभासी लोग इस मान्यतापर बल देते हैं कि जहाँ जैसे बाह्य निमित्त मिलते हैं. वहाँ उनके अनुसार ही कार्य होता है, उनकी वह मान्यता समीचीन नहीं है । किन्तु इसके स्थान में यही यह मान्यता समीचीन और तथ्यको लिए हुए हैं कि प्रत्येक कार्य चाहे वह शुद्ध द्रव्य सम्बन्धी हो और चाहे अशुद्ध द्रव्यसम्बन्धी हो, अपने-अपने निश्चय उपादानके अनुसार ही होता है । उसके अनुसार होता है । इसका यह अर्थ नहीं है कहाँ परद्रव्य निमित्त नहीं होता । परद्रव्य निमित्त तो वहाँपर भी होता है । पर उसके रहते हुए भी कार्य निश्चय उपादानके अनुसार ही होता है यह एकान्त सत्य है । इसमें सन्देह के लिए स्थान नहीं है । यही कारण है कि मोक्षके इच्छुक पुरुषोंको अनादि रूढ लोकव्यवहार से मुक्त होकर अपने द्रव्यस्वभावको लक्ष्य में लेना चाहिए आगम में ऐसा उपदेश दिया गया है । यहाँ यह शंका की जाती है कि यदि कार्यों की उत्पत्ति अन्य निमित्तोंके अनुसार नहीं होती है तो उन्हें निमित्त ही क्यों कहा जाता ? समाधान यह है कि ये कार्योंको अपने अनुसार उत्पन्न करते हैं इसलिए उन्हें विस्रसा या प्रयोग कारण नहीं कहा गया | किन्तु अज्ञानी के विकल्प और क्रियाव्यापार के समय उनको सूचन करनेमें निमित्त होती है इस बात को निमित्त कहा गया है । विस्रसा निमित्तोंके विषय में विवाद ही नहीं है । क्रियाकी प्रकृष्टता अन्य द्रव्यों के ध्यान में रखकर ही उन्हें प्रयोग इस प्रकार प्रत्येक कार्य यथासम्भव उक्त पाँच हेतुओंके समवायमें होता है । उनमें ही निश्चय उपादान और व्यवहार निमित्तों का अन्तर्भाव हो जाता है । इसलिये आगममें सर्वत्र उक्त दो हेतुओंका निर्देश कहीं पर दो को मुख्यतासे और कहीं पर गौण -- मुख्यरूप में दृष्टिगोचर होता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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