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________________ चतुर्थ खण्ड : २०५ ही योग्यता शब्दसे जिस इष्ट या अनिष्ट वस्तुकी प्राप्ति होती है तद्गत योग्यता भी ली जा सकती है, क्योंकि प्रत्येक वस्तु या कार्यका सम्पादन स्वकालमें ही होता है ऐसा नियम है। इसका सप्रमाण उल्लेख इसी अध्यायमें पहले ही कर आये हैं। तथा निश्चय उपादानका अनुगत होनेसे पुरुषार्थसे निश्चय उपादानका भी ग्रहण हो जाता है, क्योंकि पुराकृत कर्मका उदयादि और संसारी प्राणीकी ऐहिक चेष्टाएँ उसीके अनुसार होती हैं। अब आप थोड़ा करणानुयोगकी दृष्टिने भी विचार कीजिये । दर्शन मोहनीयके करणोपशमको निमित्त कर होनेवाले आत्मविशद्धिरूप निश्चय सम्यग्दर्शनके होनेकी प्रक्रिया यह है कि अनिवृत्तिकरणके बहुभाग बीतने पर यह जीव दर्शन मोहनीयकी एक, दो या तीनों प्रकृतियोंका अन्तरकरण उपशम करता है। उसके बाद प्रथम स्थितिको प्राप्त द्रव्यका उसके काल तक उदयपूर्वक उसकी निर्जरा करता है। उदय समाप्त होने पर जिस समय उदयका अभाव है उसी समय यह जीव शुद्धात्माकी भावनाके बलसे निश्चय उपादानके अनुसार निश्चय सम्यग्दर्शनको प्राप्त करता है तभी दर्शनमोहनीयके अन्तरकरण उपशम में निश्चय सम्यग्दर्शनकी उत्पत्तिकी अपेक्षा निमित्तपनेका व्यवहार होता है। इस उद्धरणसे मुख्यतया दो तथ्योंपर स्पष्ट प्रकाश पड़ता है । प्रथम तो यह कि जब यह जीव निश्चय उपादानके अनुसार अपने आध्यात्मिक पुरुषार्थके बलसे निश्चय सम्यग्दर्शनको प्राप्त हुआ उसी समय दर्शन मोहनीयके अन्तरकरण उपशममें निमित्तपनेका व्यवहार होता है। इसीलिये जो व्यवहारैकान्तवादी यह मानते हैं कि विवक्षित कार्यका अव्यवहित पूर्व समयवर्ती निश्चय उपादान अनेक योग्यतावाला होता है उनके उस मतका निरसन हो जाता है। तत्वार्थश्लोकवातिकमें निश्चय सम्यग्दर्शन स्वकालमें ही प्राप्त होता है, इसके लिये वहाँ कहा है प्रत्यासन्नमुक्तीनामेव भव्यानां दर्शनमोहप्रतिपक्षः संपद्यते नान्येषाम्, कदाचित्कारणासन्निधानात् । तत्त्वार्थश्लोकवा, ९१ । जिनको मोक्ष प्राप्त होना अति सन्निकट है ऐसे भव्य जीवोंके ही मिथ्यादर्शन आदिके प्रतिपक्षभूत निश्चय सम्यग्दर्शन आदिकी प्राप्ति होती है, अन्य भव्योंके नहीं, क्योंकि अन्तरंग-बहिरंग कारणोंका सन्निधान कदाचित् होता हो ऐसा नहीं है, क्योंकि निश्चय सम्यग्दर्शनके पूर्व अव्यवहित पूर्व जो पर्याय युक्त जीव होता है उसीमें ऐसी योग्यता होती है कि उसके अव्यवहित उत्तर समयमें निश्चय सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति होना निश्चित है । यथा निश्चयनयाश्रयणे तु यदनन्तरं मोक्षोत्पादस्तदेव मुख्यं मोक्षस्य कारणमयोगिकेवलिचरमसमयवति रत्नत्रयमिति ।-त० श्लो० पृ० ७१ । निश्चयनयका आश्रय करने पर तो जिसके बाद मोक्षकी उत्पत्ति होती है वही अयोगिकेवलीका अन्तिम समयवर्ती रत्नत्रय परिणाम मोक्षका मुख्य कारण है । पर्याय विशेष युक्त द्रव्यमें निश्चय उपादानताका समर्थन करते हुए उसी परमागमके इन वचन पर भी दृष्टिपात कीजिये ते चारित्रस्योपादानम्, पर्यायविशेषात्मकस्य द्रव्यस्योपादानत्वप्रतीतेः । वे निश्चय सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान निश्चय चारित्रके उपादान कारण हैं, क्योंकि पर्यायविशेषसहित द्रव्यमें ही उपदानपनेकी प्रतीति होती है । ऐसा नियम है कि निश्चय सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञानके साथ बारहवें गुणस्थानके प्रथम समयमें ही क्षायिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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