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________________ २००: सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ एक सांख्यदर्शन ऐसा है जिसकी अन्य निमित्तवादी दर्शनोंमें परिगणना नहीं होती। कारण कि वह कारणोंके समान कार्योंकी भी सर्वथा सत्ता स्वीकार करता है । मात्र कार्यका आविर्भाव-तिरोभाव होना मानता है। ७. जैन दर्शनका मन्तव्य यह उक्त तीन दर्शनोंके मन्तव्योंका स्पष्टीकरण है। अब इसके प्रकाशमें जैन दर्शनके मन्तव्योंपर दष्टिपात करते हैं । यह न तो सर्वथा नित्यवादी दर्शन है और न सर्वथा अनित्यवादी हो । वस्तु स्वरूपसे परिणामी नित्य है यह इसका मन्तव्य है। इसलिए प्रत्येक समयमें होनेवाला परिणाम परमार्थसे परनिरपेक्ष स्वयं होता है। जिस समय जो परिणाम होता है उससे पहले और बादमें द्रव्यदृष्टिसे वह सत् है और पर्याय दृष्टिसे असत् है । तथा अपने कालमें पर्याय दृष्टिसे भी सत् है । इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुए पञ्चास्तिकायमें कहा भी है देव-मनुष्यादिपर्यायास्तु क्रमवर्तित्वादुपस्थिताऽतिवाहिताहिताहतस्वसमया उत्पद्यन्ते विनश्यन्ति चेति । गा० १८ समयव्याख्या । देव और मनुष्यादि पर्यायें क्रमवर्ती होनेसे अपना-अपना समय प्राप्त होने और निकल जानेपर उत्पन्न होती हैं और व्ययको प्राप्त होती है । इस विषयमें स्वामि-कार्तिकेयानुप्रेक्षाका यह वचन भी द्रष्टव्य है कालाइलद्धिजुत्ता णाणासत्तीहि संजुदा अत्था । परिणममाणा हि सयं ण सक्कदे को वि वारेदु ॥२१९।। कालादि लब्धियोंसे युक्त तथा नाना शक्तियोंसे संयुक्त पदार्थ स्वयं परिणमन करते हैं इसे कौन वारण कर सकता है ॥२१९॥ तेसु अतीदा णंता अणंतगुणिदा य भाविपज्जाया। एक्को वि वट्टमाणो एत्तियमेत्तो वि सो कालो ।।२२१।। द्रव्योंकी उन पर्यायोंमेंसे अतीत पर्यायें अनन्त हैं, भावी पर्याय उनसे अनन्तगुणी हैं और वर्तमान पर्याय एक है । सो जितनी ये अतोत, भावी और वर्तमान पर्याय हैं उतने ही कालके समय हैं ॥२२१।। आशय यह है कि प्रत्येक द्रव्यकी तीनों कालसम्बन्धी जितनी पर्याय है, कालके समय भी उतने ही हैं । न्यूनाधिक नहीं । प्रत्येक वस्तुका यह स्वयं सिद्ध स्वभाव है कि प्रत्येक नियत समयमें नियत पर्याय ही स्वयं होती है और उस समयके व्ययके साथ उस पर्यायका भी व्यय हो जाता है। इस क्रमको कोई अन्यथा नहीं कर सकता। प्रत्येक वस्तु अनेकान्तस्वरूप है इसे स्पष्ट करते हुए जिस स्वचतुष्टयकी अपेक्षा वस्तुको सत्स्वरूप प्रसिद्ध किया गया है उसमें स्वकाल और कोई नहीं, यही है। ८. शंका-समाधान शंका-यद्यपि प्रत्येक वस्तु की प्रति समयकी पर्याय प्रत्येक वस्तुका उसी प्रकार स्वरूप है जिस प्रकार सत्त्व आदि सामान्य धर्म प्रत्येक वस्तुके स्वरूप है इसमें सन्देह नहीं। हमारा विवाद स्वरूपके विषयमें नहीं है, किन्तु हमारा विवाद पर्याय स्वरूपके उत्पत्तिके विषयमें है। हमारा कहना तो इतना ही है कि प्रत्येक वस्तुकी प्रति समयकी पर्यायकी उत्पत्ति परकी सहायतासे ही होती है । देखा भी जाता है कि मिट्टी घटरूप तभी परिणमती है जब उसे कुम्भकारके अमुक प्रकारके व्यापारका सहयोग मिलता है। जिनागममें बाह्य निमित्तोंकी स्वीकृतिका प्रयोजन भी यही है । अतः कार्य-कारणकी मीमांसा करते समय इसका अपलाप नहीं करना चाहिए? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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