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________________ १९८: सिद्धान्ताचार्य पं० फुलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ और विकल्प रूप व्यापार व्यवहारसे उसके अनुकूल होता है । अतः यही मानना उचित है कि कार्यकी उत्पत्ति होती तो है अपने निश्चय उपादानके स्वसमयमें प्राप्त होनेपर स्वयंकृत ही, पर उसमें जो सविकल्प क्रियावान् अज्ञानी जीव और तदितर क्रियावान् पदार्थ अन्वय व्यतिरेकरूप बाह्य व्याप्तिवश स्वकालके प्राप्त होनेपर व्यवहार हेतु होते हैं उनकी वह व्यवहार हेतुता धर्मादि द्रव्योंके समान ही जाननी चाहिए । वे अपनी-अपनी उक्त विशेषता द्वारा दसरे निष्क्रिय धर्मादि द्रव्योंके समान ही व्यवहार हेतु होते हैं यह तथ्य पूर्वोक्त कथनसे तो स्पष्ट है ही। निष्क्रिय पदार्थ दूसरोंके क्रिया लक्षण अथवा परिणाम लक्षण कार्यो में यथासम्भव किस प्रकार व्यवहार हेतु होते हैं इसका स्पष्टीकरण करते समय जो सर्वार्थसिद्धिका उद्धरण दे आये हैं उससे भी स्पष्ट है। उक्त उल्लेखमें जहाँ धर्मादि द्रव्योंकी व्यवहार हेतुताको क्रियावान् चक्षु इन्द्रियकी व्यवहार हेतू ताके समान बतलाया गया है वहाँ उससे यह भी सिद्ध हो जाता है कि सविकल्प क्रियावान् अज्ञानी जीव और तदितर क्रियावान् पदार्थोकी व्यवहार हेतुता धर्मादि द्रव्योंके समान ही होती है । और इसीलिए आचार्य पूज्यपादने जिस प्रकार धर्म द्रव्यको अन्यकी गतिमें व्यवहार हेतु कहा है, उसी अन्य सब व्यवहार हेत होते हैं इस तथ्यको इष्टोपदेशमें 'नाज्ञो विज्ञत्वमायाति' इत्यादि कथन द्वारा अन्य सब पदार्थों की व्यवहार हेतुताको निष्क्रिय धर्म द्रव्यकी व्यवहार हेतुताके समान स्वीकार किया है। निश्चय उपादान और व्यवहार निमित्त इन दोनोंका प्रति समय किस प्रकार योग मिलता है इसका समर्थन स्वामी कार्तिकेयकी द्वादशानुप्रेक्षासे भले प्रकार हो जाता है । यथा णिय-णियपरिणामाणं णिय-णियदव्वं पि कारणं होदि । अण्णं बाहिरदव्वं णिमित्तमत्तं वियाणेह ॥२१७।। सब द्रव्य अपने-अपने परिणामके निश्चय उपादान कारण होते हैं, अन्य बाह्य द्रव्यको निमित्त मात्र जानो ॥२१७॥ वस्तुतः आगममें जहाँ भी निश्चयसे कार्यको नियामकता स्वीकार की गई है वहाँ मात्र निश्चय उपादानको ही प्रधानता दी गई है । असद्भूत व्यवहारनयसे काल प्रत्यासत्तिवश अवश्य ही निश्चयकी सिद्धिके अभिप्रायसे व्यवहार हेतुको स्थान मिला हुआ है। प्रकृतमें निश्चयकी सिद्धिका अर्थ है प्रति क्षण निश्चय उपादानके होनेपर अगले समयमें जो कार्य हो उसको अपने अन्वय-व्यतिरेकके द्वारा कालप्रत्यासत्तिवश सूचित करे । बस बाह्य कारण या असद् व्यवहार हेतुका इतना ही काम है। वह निश्चय उपादानके कार्यमें दखल दे यह उसका कार्य नहीं है। हम इस तथ्यको न भूले यही जैन दर्शनका आशय है। इससे अन्य मानना वह जैनदर्शन नहीं होगा। किन्तु विश्वको कर्तारूपसे माननेवाला ईश्वरवादी दर्शन होगा । ६ अन्य दर्शनोंका मन्तव्य अपने इस कथनकी पुष्टिमें हम सर्व प्रथम नैयायिक दर्शनको लेते हैं । नैयायिक दर्शन कार्यकी उत्पत्तिमें समवायी कारण, असमवायी कारण और निमित्त कारण ये तीन कारण मानता है। जिससे समवेत होकर कार्य उत्पन्न होता है वह समवायी कारण है, संयोग आदि असमवायी कारण है। इन दोनोंसे अतिरिक्त निमित्त कारण है। नैयायिक दर्शन आरम्भवादी या असत् कार्यवादी दर्शन है। वह कारणमें कार्यकी सत्ता स्वीकार नहीं करता और न ही स्वरूपसे वस्तुको द्रव्यदृष्टिसे नित्य और पर्याय दृष्टिसे अनित्य ही मानता है । इसलिये उस दर्शनमें निमित्त कारणपर अधिक जोर दिया गया है । यद्यपि उस दर्शनमें प्रेरक निमित्त कारण और उदासीन निमित्त कारण ऐसे भेद दृष्टिगोचर नहीं होते, फिर भी वह सभी निमित्त कारणोंके मध्य कर्तारूपसे ईश्वरको सर्वोपरि मानता है। इसलिए इस दर्शनमें ईश्वरके अतिरिक्त अन्य सब उदासीन निमित्त कारण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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