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________________ १७० : सिद्धान्ताचार्य पं० फलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ समय-विचार . कृतिकर्म कब किया जाये इस प्रश्नका समाधान करते हुए लिखा है कि कृनिकर्म तीनों सन्ध्याकालोंमें करना चाहिए ।' वीरसेन स्वामी अपनी धवला टीका में कहते हैं कि तीन बार ही करना चाहिए ऐसा कोई एकान्त नियम नहीं है। अधिक बार भी किया जा सकता है, पर तीन बार अवश्य करना चाहिए। यह तो हम आगे बतलानेवाले हैं कि तीन सन्ध्याकालोंमें जो कृतिकर्म किया जाता है, उसमें सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव और वन्दना इन तीनोंकी मुख्यता है, इसलिए आजकल जिन विद्वानों और त्यागियोंका यह मत है कि साधुको प्रतिदिन देववन्दना करनी ही चाहिए, ऐसा कोई नियम नहीं है, उनका वह मत आग मसंगत नहीं जान पड़ता। तीनों सन्ध्याकालोंमें किया जानेवाला कृतिकर्म साधु और श्रावक दोनोंका एक समान है। अन्तर केवल इतना है कि साधु अपरिग्रही होनेसे कृतिकर्म करते समय अक्षत आदि द्रव्यका उपयोग नहीं करता और गहस्थ उसका भी उपयोग करता है। गृहस्थका कृतिकर्म मूलाचारमें कृतिकर्म के व्याख्यानके प्रसंगसे विनयकी व्याख्या करते हए उसके पाँच भेद किये हैंलोकानुवृत्तिविनय, अर्थविनय, कामविनय, भयविनय और मोक्षविनय । अर्थविनय, कामविनय और भयविनय ये संसारकी प्रयोजक हैं यह स्पष्ट ही है। लोकानुवृत्तिविनय दो प्रकार की है-एक वह जिसमें यथावसर सबका उचित आदर-सत्कार किया जाता है और दूसरी वह जो देवपूजा आदिके समयकी जाती है । यहाँ देवपूजा अपने वैभवके अनुसार करनी चाहिए यह कहा है। इससे विदित होता है कि गृहस्थ कृतिकर्म करते समय अक्षत आदि सामग्रीका उपयोग करता है । वह सामग्री कैसी हो इसके सम्बन्धमें मूलाचार प्रथम अधिकारके श्लोक २४ की टीकामें आचार्य वसुनन्दि कहते हैं-जिनेन्द्रदेवकी पूजाके लिए गन्ध, पुष्प और धूप आदि जिस सामग्रीका उपयोग किया जावे, वह प्रारक और निर्दोष होनी चाहिए। इससे भी गृहस्थ कृतिकर्म करते समय सामग्रीका उपयोग करता है इसकी सूचना मिलती है। आलम्बन __ कृतिकर्म करने का मुख्य हेतु आत्मशुद्धि है । इसलिए यह विधि सम्पन्न करते समय उन्हींका आलम्बन लिया जाता है, जिन्होंने आत्मशुद्धि करके या तो मोक्ष प्राप्त कर लिया है या जो अरहन्त अवस्थाको प्राप्त हो गये हैं । आचार्य, उपाध्याय और साधु तथा जिन-प्रतिमा और जिनवाणी-ये भी आत्मशुद्धिमें प्रयोजक होनेसे उसके आलम्बन माने गये हैं। यहाँ यह प्रश्न होता है कि देवपूजा आदि कार्य बिना रागके नहीं होते और राग संसारका कारण है, इसलिए कृतिकर्मको आत्मशुद्धिमें प्रयोजक कैसे माना जा सकता है। समाधान यह है कि जबतक सराग अवस्था है, तबतक जीवके रागकी उत्पत्ति होती ही है। यदि वह राग लौकिक प्रयोजनकी सिद्धिके लिए होता है तो उससे संसारकी वृद्धि होती है। किन्तु अरिहन्त आदि स्वयं राग और द्वेषसे रहित होते हैं । लौकिक प्रयोजनसे उनकी पूजाकी भी नहीं की जाती है, इसलिए उनमें पूजा आदिके निमित्तसे होनेवाला राग मोक्षमार्गका प्रयोजक होनेसे प्रशस्त माना गया है। मूलाचारमें भी कहा है कि जिनेन्द्रदेवकी र्भात करनेसे पूर्व संचित सब कर्मों का क्षय होता है आचार्य के प्रसादसे विद्या और मन्त्र सिद्ध होते हैं । ये संसारसे तारनेके लिए नौकाके समान है। अरिहन्त, वीतराग धर्म, द्वादशाग १. षट्खण्डागम, कर्म अनुयोगद्वार, सूत्र २८ । २. मूलाचार, षडावश्यकाधिकार, गाथा ८४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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