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________________ १६६ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ और मनकी यद्वा-तद्वा प्रवृत्तिसे विरत रहता है । केश सम्मूर्च्छन जीवोंकी उत्पत्तिके स्थान है इस अभिप्रायसे वह स्वयं अपने हाथसे उनके उत्पाटनका व्रत स्वीकार करता है । इसके लिए किसीसे कर्तरी और छुरा आदिकी याचना नहीं करता । कोई स्वेच्छासे लाकर देने भी लगे तो वह उन्हें स्वीकार नहीं करता। उनके स्वीकार करनेमें या उनसे काम लेनेमें वह अपने स्वावलम्बन-व्रतकी हानि मानता है । उसकी अन्य परिग्रह आदि समान शरीरमें भी आसक्ति नहीं होती, इसलिए वह न तो शरीरका संस्कार करता है और न स्नान ही करता है । आवरण और परिग्रहका त्याग कर देनेसे वह नग्न रहता है। आहार उतना ही लेता है जो शरीरके सन्धारणके लिए आवश्यक होता है। उसके मुंहमें आहारजन्य दुर्गन्ध आदिके उत्पन्न न होनेके कारण उसे दन्तधावन आदिकी भी आवश्यकता नहीं पड़ती। तथा वह अपने पाँच इन्द्रियोंके विषयोंसे सदा विरक्त रहता है। यह प्रत्येक साधुकी जीवन-भरके लिए स्वीकृत चर्या है। इसका वह प्रतिदिन शरीरमें आसक्ति किये बिना उत्तम रीतिसे पालन करता है। __ साधुके मूलगुण अट्ठाईस होते है-पांच महाव्रत, पाँच समिति, पाँच इन्द्रियोंके विषयोंका निरोध, सात शेष गुण और छह आवश्यक । इनमेंसे बाईस मूलगुणोंका विचार पूर्व ही कर आये हैं । छह आवश्यक सामायिक, चविंशतिस्तव. वन्दना. प्रतिक्रमण. प्रत्याख्यान और व्य सर्ग। साधु इनका भी उत्तम रीतिसे पालन करता है । जीवन-मरण, लाभ-अलाभ, संयोग-वियोग, मित्र-शत्रु और सुख-दुःखमें समता परिणाम रखना और त्रिकाल देववन्दना करना सामायिक है । चौबीस तीर्थंकरोंको नाम निरुक्ति और गुणानुकीर्तन करते हुए मन, वचन और कायकी शुद्धिपूर्वक प्रणाम करना चतुर्विंशतिस्तव है। पाँच परमेष्ठी और जिनप्रतिमाको कृतिकर्मके साथ मन, वचन और कायकी शुद्धिपूर्वक प्रणाम करना वन्दना है । द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावके आलम्बनसे व्रतविशेषमें या आहार आदिके ग्रहणके समय जो दोष लगता है, उसकी मन, वचन और कायकी सम्हालके साथ निन्दा और गर्दा करते हुए शुद्धि करना प्रतिक्रमण है। तथा अयोग्य नाम, स्थापना और द्रव्य आदिका मन, वचन और कायसे त्याग कर देना प्रत्याख्यान है। विशेष नियम ये साधुके मूल गुण हैं । इनका वह नियमित रूपसे पालन करता है। इनके सिवा उक्त धर्मके पूरक कुछ उपयोगी नियम और हैं जिनको जीवनमें उतारनेसे साधुधर्मकी रक्षा मानी जाती है। वे ये हैं-१. जो अपनेसे बड़े पुराने दोक्षित साधु हैं, उनके सामने आनेपर अभ्युत्थान और प्रणाम आदि द्वारा उनकी समुचित विनय करता है । २. आगमार्थके सुनने और ग्रहण करनेमें रुचि रखता है। ३. गुरु आदिसे शंकाका निवारण विनयपूर्वक करता है । ४ श्रुतका अभ्यास बढ़ जानेपर न तो अहंकार करता है और न उसे छिपाता है । ५. ज्ञान और संयमके उपकरणोंके प्रति आसक्ति नहीं रखता। ६. जिस पुस्तकका स्वाध्याय करता है, उसे ही स्वाध्याय समाप्त होने तकके लिए स्वीकार करता है। अनावश्यक पुस्तकोंके संग्रहमें रुचि नहीं रखता । अनुसन्धानके लिए अधिक पुस्तकोंका अवलोकन करना वर्जनीय नहीं है, परन्तु उनके संग्रहमें रुचि नहीं रखता । ७. अपने गुरु और गुरुकुलके अनुकूल प्रवृत्ति करता है । ८. संयमके योग्य क्षेत्र, निर्जन वन, गिरि-गुफा या चैत्यालय आदिमें निवास करता है। ९. अन्य साधुओंकी आवश्यकतानुसार वैयावृत्य करता है। १०. गाँवमें एक दिन और शहरमें पाँच दिन निवास करता है। ११. पहले अपनी गुरु-परम्परासे आये हुए आगमका विधिपूर्वक अध्ययन करके अनन्तर गुरुकी आज्ञासे अन्य शास्त्रोंका अध्ययन करता है। १२. अध्ययन करनेके बाद यदि अन्य धर्मायतन आदि स्थानमें जानेकी इच्छा हो तो गुरुसे अनेक बार , अनुज्ञा लेकर अकेला नहीं जाता है किन्तु अन्य साधुओंके साथ जाता है । अकेले विहार करनेकी गुरु ऐसे साधुको ही अनुज्ञा देते हैं - पन्छाप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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