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________________ चतुथ खण्ड : १५५ त्याग न कर सकें। सम्यग्दर्शन धर्मका आवश्यक अंग है। पूर्ण धर्मकी प्राप्ति उसीके सद्भावमें होती है । एक बात अवश्य है कि यह सब कर्मभूमिज मनुष्यके ही सम्भव है । देव और नरक गति भोग प्रधान होनेसे वहाँ मात्र दृष्टि लाभ होता है, क्योंकि वहाँ स्वावलम्बिनी-वृत्तिका जीवनमें अंशमात्र भी उतारना सम्भव नहीं है। रही तिर्यंच गतिकी बात सो इस पर्यायमें पूर्ण विकास सम्भव नहीं होनेसे वहाँ भी पूर्ण धर्मकी प्राप्ति सम्भव नहीं है। यद्यपि स्थिति ऐसी है फिर भी कुछ भाई कर्मभूमिज मनुष्योंमें अनुकूल द्रव्य, क्षेत्र और कालके रहते हुए भी ऐसा विधान करते हैं कि यह मनुष्य इतना धर्म धारण कर सकता है और यह मनुष्य इतना । इसके लिए वे पीछेके कुछ श्रावकाचारों और पुराणोंके प्रमाण उपस्थित करते हैं। यहाँ हमें इन प्रमाणोंकी गहराईसे छानबीन नहीं करनी है, किन्तु इतना अवश्य कहना है कि जीविकोपयोगी कर्मके आधारसे धर्म धारण करनेकी योग्यतामें अन्तर मानना तीर्थंकरोंकी आज्ञाके विरुद्ध है । वर्ण व्यवस्थाको किसी न किसी रूपमें भारतीय सभी परम्पराओंने स्वीकार किया है, पर कौन परम्परा इसे किस रूपमें स्वीकार करती है यही सबसे अधिक महत्त्वका प्रश्न है। हम यह जानते हैं कि अब देश, काल ऐसा उपस्थित हआ है, जिसके कारण कुछ काल बाद पुरानी सामाजिक व्यवस्थाएँ, केवल अध्ययन और खोजकी वस्तुएँ रह जायेंगी, पर उस दृष्टिसे हमें उनको अस्वीकार नहीं करना है । हमें तो यहाँ उनके वास्तविक अन्तरको जानकर ही अस्वीकार करना है । जैसा कि मनुस्मति आदिसे ज्ञात होता है कि ब्राह्मण परम्परा जन्मसे वर्ण व्यवस्थापर जोर देती है। उसमें ब्राह्मणकी सन्तान ब्राह्मण और शूद्रकी सन्तान शूद्र ही मानी जाती है, फिर चाहे वह कर्म कोई भी क्यों न करे। हम देखते हैं कि वर्तमानमें अधिकतर कथित ब्राह्मण अध्ययन-अध्यापन आदि कम न करके अन्य-अन्य कम करते हैं। कोई रसोई बनाता है, कोई पानी भरता है, कोई जूतोंकी दुकान करता है. कोई कपड़ा बेचता है और कोई नौकरी करता है, फिर भी वह और उसकी सन्तान ब्राह्मण ही मानी जाती है । यही अवस्था दूसरे वर्णों की है । किन्तु जैनधर्मने जन्मसे वर्ण व्यवस्थापर कभी भी जोर नहीं दिया है। उसने वर्णका आधार एकमात्र कर्मको ही माना है। फिर भी वह इस आधारसे ऊँच-नीचकी कल्पना त्रिकालमें नहीं करता है। उसके मतसे न कोई कर्म बुरा है और न कोई कर्म अच्छा । वह अच्छाई और बुराई या उच्चत्व और नीचत्व व्यक्ति के जीवनसे स्वीकार करता है । जो व्यक्ति हिंसाकी ओर गतिशील है वह बुरा ही बुरा है और जो जीवनमें अहिंसाको प्रश्रय देता है उसकी अच्छाईको पूछना किससे है। यही बात उच्चत्व और नीचत्वकी है। इसलिए जन्मना वर्णव्यवस्था के आधारसे किसी मनुष्यको धर्म धारण करनेके योग्य मानना और किसीको अयोग्य मानना जैनधर्मकी आत्माके विरुद्ध है। यह कल्पित जाति और कूलका अभिमान तो सम्यग्दृष्टिसे ही छुट जाता है । वह सभी प्रकारके अभिमानसे सर्वथा मुक्त हो जाता है। जानकर बड़ा अफसोस होता है कि विचारका स्थान रूढ़िवादिताने ले लिया है. सम्यग्दृष्टिका स्थान परम विचारकका है, इस बातको प्रायः भुला दिया गया है। मानाकि 'नान्यथावादिनो जिनाः' इस आधारपर वह जिनाज्ञाको प्रमाण माननेके लिए सदा तत्पर रहता है, पर जिनाज्ञाके नामपर सभी बातोंको वह आँख मीच कर स्वीकार करता जाय यह नहीं हो सकता। जैन-परम्परामें युक्ति अनुभव और आगमइन तीन बातोंको प्रमुखता दी गयो है । आगममें भी यहाँ पूर्व-पूर्व आगमकी प्रमाणता मानी गयी है । सम्यग्दष्टि तीर्थंकरोंके वचनोंको प्रमाण माननेके लिए अपने निःशंकित गणका उपयोग करता भी है तो इसका यह अर्थ नहीं कि वह उनके नामपर आजतक जो कुछ भी लिखा गया है, उस सबको प्रमाण मानता है । वह उत्तर वचनका पूर्व वचनके साथ मिलान करता है। यदि उत्तरवचन पूर्व वचनके अनुकूल होता है तो वह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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