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________________ १५० : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ समय संसारमें जैनियोंकी संख्या सबसे अधिक थी । भगवान् आदिनाथ स्वामीका काल तो इससे और भी उज्ज्वल था । विदेह क्षेत्रमें तो व्यवहार मिथ्यादृष्टी नामको भो नहीं हैं, फिर वहाँ आपकी पूर्वोक्त व्याप्तिका क्या अर्थ किया जावे ? थोड़ा सोच समझकर ही उत्तर दीजिये । बात तो यह है कि आप सामंजसपनेकी सांप्रदायिकता के आवरण में झोंक देनेका असफल प्रयत्न कर रहे हैं और आत्मप्रौढ़से उस दोषको छिपा देना चाहते हैं । परन्तु यह याद रखिये कि इस दोष से आप स्वयं पतित होते जा रहे हैं और दूसरोंको भी अपनी ओर खींच रहे हैं । त्राणकी भावना आपमें से बिल्कुल नष्ट हो चुकी है । आप उसे छिपाइये, परन्तु वह अब छिप नहीं सकती । संसार उसके तांडव नृत्यसे जागृत हो उठा है । वह आपकी और कबतक प्रतीक्षा करेगा, वह आपको अपना नेता बनाना चाहता है, परन्तु उस साम्प्रदायिकता के परे । दान इस तत्त्वका विकास लोकोपयोगी कार्य और परस्परके व्यवहारकी दृष्टिसे हुआ है । लोकोपयोगी कार्योंमें धर्मरुचि और दया- ये दो तत्त्व काम करते हैं । तथा परस्परके व्यवहारमें ' आदान-प्रदानकी पद्धति मुख्य है । यहाँ धर्मरुचिसे मोक्षमार्ग इष्ट है । इसलिए मोक्षमार्गीके आत्मकल्याण में अव्याहत रत रहने के लिये उसके अनुकूल आहारादिक साधनों का प्रदान करना मोक्षमार्गकी अपेक्षासे दान है । यह दान गुणाधिष्ठित माना गया है । अर्थात् इस दानमें गुणकी मुख्यता रहती है । इस सम्बन्धमें गुणोंका विभाग करते हुए आचार्यों ने विरत और अविरतकी अपेक्षासे दो भेद किये हैं । विरत भी दो भेद कर दिये हैं, एक देशविरत और दूसरा महाविरत । इस तरह अविरतको जघन्य, देशविरतको मध्यम और महाव्रतीको उत्तम पात्र बतलाया है, यद्यपि मिथ्यादृष्टिसे लेकर चौथे गुणस्थान तक जीवकी अविरत यह संज्ञा है, फिर भी यहाँपर अविरतसे अविरत सम्यग्दृष्टि ही समझना चाहिए । यहाँपर सम्यग्दृष्टिकी पहिचान क्या है इस प्रश्नके उत्तर में यही समझना चाहिए कि सम्यक्त्व यह आत्माका गुण है, इसलिए उसका इन्द्रियोंके द्वारा साक्षात्कार नहीं हो सकता है । इसलिए इन्द्रियद्वारा सम्यग्दृष्टिकी पहिचान होना कठिन ही है, फिर भी बहुतसे तत्त्वोंका ज्ञान उसके कार्योंके द्वारा किया जाता है । इसमें भी अव्यभिचरित कार्य ही अपने कारणके ज्ञापक होते हैं । अब विचारनेकी बात यह रह जाती है कि सम्यक्त्वके अव्यभिचरित कार्य क्या हैं । इसके लिये सबसे पहिले यह देखना होगा कि सम्यक्त्वकी उत्पत्ति किस स्थितिमें और किन कारणोंसे होती है । इस तत्त्वको अच्छी तरहसे आकलन कर लेनेपर हमें सम्यक्त्वके कार्योंका बहुत कुछ परिज्ञान हो सकता है । सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति में पाँच लब्धियाँ कारण बतलाई हैं । यद्यपि ये पाँचों ही लब्धियाँ सम्यग्दर्शनकी अविनाभाविनी नहीं हैं । उनमेंसे आदिकी चार ( क्षयोपशमलब्धि, देशनालब्धि, विशुद्धिलब्धि और प्रायोग्यलब्धि) ये मिथ्यादृष्टि के भी होती हैं, फिर भी जहाँपर सम्यग्दर्शनका सद्भाव होगा, वहाँ पर ये अवश्य ही होंगी । इससे यह निश्चित हो जाता है कि जिस आत्मामें सम्यग्दर्शनका सद्भाव है, वहाँ पर इन चारों लब्धियोंके कार्य अवश्य ही होते हैं । इससे यह तात्पर्य निकल आता है कि सम्यग्दृष्टि जीव हिताहित परीक्षक और तत्त्व विमर्शक तो होगा ही । साथ ही करणलब्धिके द्वारा उसके अनन्तानुबंधी और मिथ्यात्वका अभाव हो जानेके कारण वह न्यायमार्ग से व्यवहार करने वाला भी होगा । जब तक इस जीवके अनन्तानुबंधी और मिथ्यात्वका अभाव नहीं हो जाता है, तब तक वह हिताहित परीक्षक और तत्त्व विमर्शक होते हुये भी अहितको छोड़कर हितको स्वीकार करने तथा अतत्त्वको छोड़कर तत्त्वरूप चलनेकी उसकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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