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________________ तप अपने शरीर, इन्द्रिय और मनके ऊपर विजय प्राप्त करनेके लिये तप किया जाता है। तप इस शब्दमें प्रतिपक्षीके ऊपर विजय प्राप्त करनेके लिए निरोध रूप अर्थ गर्भित है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि संक्लेशका अनुभव न करते हुये हमें शरीर, इन्द्रिय, और मनको अपने स्वाधीन करना चाहिये । शरीर और इन्द्रिय सम्बन्धी विकारोंके ऊपर विजय सम्पादन करना बाह्यतप कहलाता है तथा मन सम्बन्धी विकारोंके ऊपर विजय सम्पादन करना आभ्यंतर तप है। इष्ट, गरिष्ट और स्वादिष्ट रसादिकके सेवन करनेसे और अनेक प्रकारके संस्कार करनेसे शरीर विकारी होता है । शरीरका विकार इन्द्रिय और मनमें दर्प उत्पन्न करता है, जिससे प्राणीको प्रवृत्ति स्वभावतः विषयोंकी ओर होती है । विषय ग्रहण करने में इष्टानिष्ट कल्पनाका होना स्वाभाविक बात है। इस तरह रागद्वेषसे आधीन होकर यह प्राणी हित और अहितकी पहिचान करने में असमर्थ हो जाता है। ऐसे प्राणीकी हित और अहितकी कल्पना अपने अनुकूल और प्रतिकुल पदार्थ तक ही सीमित हो जाती है । यहाँपर यह ध्यान रखना चाहिये कि कोई भी पदार्थ अनुकूल और प्रतिकूल न होकर इसकी भावना ही पदार्थमें इष्टानिष्ट कल्पनाके लिए बाध्य करती है। इस तरह यह रागादिके अविषयरूप पदार्थमें रागादिकी कल्पना करनेके कारण आत्मस्वरूपसे सर्वदा च्युत रहता है यही तो इसका महामिथ्यात्व है । कुछ प्राणियोंकी ऐसी भी कल्पना हो जाती है कि पर-पदार्थ सर्वथा अनिष्टकर हैं इसलिए वे पर-पदार्थके त्यागमें ही आत्मस्वरूपको प्राप्तिकी श्रद्धा करके अपनेको मोक्षमार्गी समझने लगते हैं। परन्तु वे आत्मस्वरूपकी प्राप्तिसे अत्यन्त दूर खड़े रहते हैं, अतएव वे भी उसी श्रेणी में चले जाते हैं। उन प्राणियोंकी तो और भी शोचनीय अवस्था हो जाती है, जो अपनेको शुद्धोऽहं, बुद्धोऽहम, तो कहते हैं परन्तु वे न तो बाह्यपदार्थों में उपरतिको ही प्राप्त होते हैं और न आत्मस्वरूपमें रतिको ही । रति और अरति ये धर्म कषायजन्य न होकर जहाँ विवेकजन्य होते हैं वहींसे उस प्राणीकी प्रणति सत्यमार्गका अनुसरण करने लगती है। यही मानसिक विजय सबसे प्रथम तप है । पूर्वऋषियोंने कर्मक्षयका प्रधान कारण तपश्चर्या बतलाई है, उसका बीज इसीमें अन्तर्निहित है । जहाँसे यह मानसिक विकास इस प्राणीको प्राप्त होने लगता है, वहींसे यह परपदार्थके सम्बन्धसे भी मुक्त होने लगता है। सम्यग्दर्शनका उत्पत्तिका क्रम दिखलाते हुए आचार्योंने अधःकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण रूप परिणामोंके होते ही कर्म निर्जराकी क्रमिक प्रवृत्ति का प्रतिपादन किया है । इससे इस कथनकी और भी स्पष्टता हो जाती है। _इस तरह आभ्यंतर तप मानसिक शुद्धि है। प्रायश्चित, विनय, वैयावृत्य व्युत्सर्ग, स्वाध्याय और ध्यान-ये उसके साक्षात् पोषक हैं तथा उस मनकी शुद्धिके लिए शरीर और इन्द्रियोंका निग्रह करना अत्यन्त आवश्यक है। इसके लिए अनशन, ऊनोदर, वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्तशय्यासन और कायक्लेशइनसे सहायता मिलती है । यदि कोई अनशन आदिकके द्वारा ही तप समझता हो तो उसकी वह भूल है। ये दोनों आभ्यन्तर और बाह्य परस्पर सापेक्ष हैं, अतएव इनका पालन परस्पर सापेक्षतासे ही करना चाहिए । जो भाई मनकी शुद्धि न होते हुए भी अथवा कषायोंकी न्यूनता न होनेपर भी इन एकाशनादिकसे कर्मनिर्जरा समझते हैं, उनको इस कथनपर अवश्य ही ध्यान देना चाहिये । इसके साथ तपके लिए आचार्योंने ज्ञानाभ्यासकी अत्यन्त मुख्यता बतलाई है। कारण कि ज्ञानाभ्यासके बिना हेय क्या है ? और उपादेय क्या है ? यह समझमें न आनेके कारण अज्ञानपूर्वक किया गया तप कर्मनिर्जराके लिए कारण नहीं होता है । इस तरह यह सिद्ध हो जाता है कि विवेक पूर्वक आत्मशुद्धि के लिए जो क्लेश सहन किया जाता है, उसीको तप कहते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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