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________________ १४४ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ यह सिद्ध हो जाता है कि हमारे विचारोंकी सुधारणाकी तरह हमारे आचारकी सुधारणाका होना भी आवश्यक है। द कोई यह कहे कि आचार-धर्म शरीर-धर्म होनेसे उधर लक्ष्य नहीं दिया तो भी चलेगा तो उनका यह कहना ठीक नहीं । कारण कि जिस प्रकार आचार-धर्ममें शरीर-धर्मकी प्रधानता है उसी प्रकार विचार-धर्ममें शरीर निमित्तका अभाव भी तो नहीं है। एक जगह यदि आत्माकी प्रधानता है तो शरीरका निमित्तपना है ही। उसी प्रकार दूसरी जगह यदि शरीरकी प्रधानता है तो आत्माका निमित्तपना है ही। इसलिए आचार और विचारोंका परस्पर आत्मा और शरीर-इन दोनोंके ऊपर परिणाम होता है । अब यदि किसीका आचार-धर्म अनिर्मल हो तो उसके विचार-धर्मके मलिन करने में भी वह कारण होगा। तथा जिसका विचार-धर्म मलिन हो उसका आचार-धर्म भी मलिन होगा ही। जो लोग विचारोंके बिना अपने आचारमें और आचारके बिना अपने विचारोंमें निर्मलता लानेका प्रयत्न करते हैं, वे धर्मका पालन न करके उसका उपहास करते हैं, ऐसा समझना चाहिए। इस कथनसे यह निष्कर्ष अपने आप निकल आता है कि स्वाध्याय करते हुए हमें सभी अनुयोगोंकी ओर लक्ष्य रखना चाहिए । यदि हम ऊपर कहे हुए कथनके अनुसार स्वाध्याय करने लगे तो उससे हमें इन विशेष गुणोंकी प्राप्ति होगी। आत्माका हित किसमें है ? इसकी प्राप्ति स्वाध्यायसे ही होती है। आत्माका अहित करनेवाला इन्द्रियसुख सुख न होकर दुःखका प्रतिकार मात्र है, वह अल्पकाल तक ही रहता है, पराधीन है, रागकी परम्पराको बढ़ानेवाला है, कष्टसाध्य है, भयको उत्पन्न करनेवाला है शरीरके परिश्रमसे उत्पन्न होता है, और अपवित्र ऐसे शरीरके स्पर्शसे उत्पन्न होता है, इसके विपरीत आत्मसुख सम्पूर्ण दुःखोंके नाशसे उत्पन्न होता है, नित्य है निर्बाध है और आत्मोत्थ है । यह विवेक भी स्वाध्यायसे ही प्राप्त होता है । उसी प्रकार पापकर्मके निमित्तभूत अशुभ परिणामोंका त्यागरूप अथवा शुद्धोपयोगके कारणरूप भावसंवर, प्रतिदिन संवेग, रत्नत्रयमें स्थिरता, गुप्तियोंकी रक्षा और दूसरोंको कल्याग मार्गके उपदेश देनेकी सामर्थ्य स्वाध्यायसे ही प्राप्त होती है। स्वाध्यायसे पहिले अशुभ परिणतिका त्याग होकर शुभ परिणतिमें प्रवृत्ति होती है, तदनन्तर वह भी संसारका कारण है, यह विवेक प्राप्त होनेपर शुद्धपरिणति उपादेय है, ऐसा समझ कर यह आत्मा अपने विचारों में उज्ज्वलता उत्पन्न करता है और आत्मधर्मको प्राप्त करके परमार्थका भोक्ता बनता है। अतएव आत्माका सच्चा मार्गदर्शक जैनशास्त्रोंका स्वाध्याय निरन्तर करना चाहिए। आजकल उपन्यास, गल्प और नाटक आदि मानवजीवनका विनाश करनेवाला साहित्य-निर्माण हो रहा है। उसमें उन्हीं बातोंके चित्र रंगे गये हैं जिन्हें हम और आप प्रतिदिन आखें मीचकर करते हैं, अतएव ऐसे साहित्यसे अपने मनको रोक लेना यह केवल आत्म-शास्त्रकी दृष्टिसे हितकर है, इतना ही नहीं, किन्तु समाजशास्त्रकी दृष्टिसे भी हितकर है । यदि आपको अपना और अपनी समाजका स्वास्थ्य ठीक रखना है तो उसका त्याग करना ही श्रेयस्कर है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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