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________________ चतुर्थ खण्ड : १२९ पहले हम अपरिग्रहवादकी विस्तारसे चर्चा कर आये हैं। व्यक्तिके जीवनपर उसकी व्यावहारिक शिक्षाका क्या प्रभाव पड़ता है इसका भी हम निर्देश कर आये हैं । साधारण नियम यह है कि व्यक्तियों के निर्माणसे ही विश्वका निर्माण होता है। सन्त पुरुषोंने इसकी महत्ता हृदयंगमकी थी। किन्तु राजनीतिज्ञ आज इस तत्त्वको भूले हुए हैं । वे शक्तिके बलसे विश्वपर अपनी व्यवस्था लादना चाहते हैं। यदि सचमचमें उनके मस्तिष्कमें यह बात समाई हुई है कि विश्वमें शान्ति स्थापित होनी चाहिये, चाहे उसके लिए कितना ही बड़ा मूल्य क्यों न चुकाना पड़े तो सर्व प्रथम उन्हें ऐसी शिक्षाओंकी ओर ध्यान देना होगा जो मानवताकी पूर्ण प्रतिष्ठा करनेमें सहायक हो सकें। केवल विश्वशान्तिका ढिंढोरा पीटनेमात्रसे विश्वशान्ति स्थापित नहीं हो सकती। हमने विश्वशान्तिके साधनोंपर सावधानी पूर्वक विचार किया है। उसका एकमात्र उपाय अपरिग्रहवाद की शिक्षा है। इसके लिये निम्नलिखित योजना लाभप्रद हो सकती है साधुसंस्थाके संगठनको मात्र स्वावलम्बनके आधारपर बढ़ावा दिया जाय । साधसंस्थाको साम्प्रदायिक दलबन्दीसे मुक्त रखा जाय । व्यक्तिके सदाचारपर विशेष ध्यान दिया जाय । यह कार्य साधुसंस्थाके जिम्मे किया जाय । साधुसंस्था अलिप्त भावसे इस कार्यकी संम्हाल करे। विश्वविद्यालयों में औद्योगिक शिक्षाके साथ चरित्रनिर्माणको शिक्षापर विशेष ध्यान दिया जाय । समाजमें स्वावलम्बन और अपरिग्रहवादकी शिक्षा देनेवाली धार्मिक संस्थाओंको ही प्रमुखता दी जाय। उन सिद्धान्तोंकी शिक्षा, जो व्यक्तिस्वातन्त्र्यके मार्गमें रोड़ा हैं, तत्काल बन्द की जाय । सम्प्रदायवाद, ईश्वरवाद और जातीयताका जिन उपायोंसे अन्त हो वे उपाय अमल में लाये जायें । श्रम किसी प्रकारका ही क्यों न हो, राष्ट्रीय सम्पत्ति समझ कर उसकी पूर्ण प्रतिष्ठा की जाय । प्रत्येक गाँवको स्वावलम्बी बनानेकी दृष्टिसे गह उद्योगको प्रोत्साहन दिया जाय । बडे-बडे कल-कारखाने न खोले जायँ । जो हैं या जिनका निर्माण किये बिना राष्ट्रका काम नहीं चल सकता, उनका एकाधिपत्य व्यक्तिके हाथ में न रह सके इसकी तत्काल व्यवस्था की जाय । प्रत्येक देशकी सरकारके रहन-सहनका ढंग आडम्बरपूर्ण और भयोत्पादक न हो, इस ओर ध्यान दिया जाय। जनसाधारणके जीवन स्तरको ध्यानमें रखकर हो सरकारी नौकरीका मान निश्चित किया जाय । प्रत्यय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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