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________________ जैन धर्म जिसे लोकमें जैनधर्मके नामसे अभिहित किया जाता है, वह अपने स्वावलम्बन प्रधान दर्शनका धनी होनेके कारण व्यक्ति-स्वातन्त्रकी प्राणप्रतिष्ठा करने वाला लोकोत्तर धर्म है। उसके अनुसार लोकमें जड़ और चेतन जितने भी (अपनी-अपनी स्वतन्त्र सत्ता रखने वाले) पदार्थ हैं, वे सब अपने अन्वयी स्वभावके कारण ध्रुव होकर भी अपने व्यतिरेकी स्वभावके कारण स्वयं अपनी पर्यायोंके कर्ता होकर विवक्षित पर्यायसे पर्यायान्तर रूप जीवन में प्रवाहित होते रहते हैं। यह उनका अपना जीवन है। इसमें अन्य किसीका हस्तक्षेप नहीं है। जैसा कि आगमसे ज्ञात होता है कि द्रव्य छह हैं । उनके नाम हैं-जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल । संख्याकी दृष्टिसे जीव अनन्त हैं । पुद्गल उनसे अनन्तगुने हैं। पुद्गलोंका मूल रूप परमाणु है । इस द्रव्यकी गणनामें मुख्य रूपसे परमाणु ही विवक्षित है। धर्म, अधर्म और आकाश ये प्रत्येक एक-एक हैं तथा काल द्रव्य अणुरूप होकर असंख्यात है। - इन छह द्रव्योंमें जो आकाश द्रव्य है उसके ठीक मध्यमें लोकाकाश है, इस कारण आकाश द्रव्य दो भागोंमें विभक्त हो गया है-लोकाकाश और अलोकाकाश । जो आकाश शेष पाँच द्रव्योंका आधार है, वह लोकाकाश है तथा शेष अलोकाकाश है। सवाल यह है कि जब प्रत्येक द्रव्य अपने-अपने जीवन-प्रवाहमें परनिरपेक्ष है, तब यह जीव नामक पदार्थ अन्यके निमित्तसे परतंत्रताको स्वीकार कर क्यों तो पराधीन बनता है और पुद्गल भी परमाणुरूप अपने मूल स्वभावको छोड़कर क्यों स्कंध अवस्थाको धारण करता रहता है ? सवाल हृदयंगम करने लायक है । समाधान यह है कि पुद्गलका तो ऐसा स्वभाव ही है। वह चाहे स्कंध अवस्थामें रहे और चाहे परमाण अवस्थामें रहे। चाहे उसकी परनिरपेक्ष स्वभाव पर्याय हो। परसापेक्ष विभाव पर्याय ही क्यों न हो? दोनों अवस्थाओंमें उसमें बंधने और छुटनेका गुण है। जब बंध अवस्थामें रहता है तब उसे स्कंध कहते हैं और जब मुक्त अवस्थामें रहता है, तब उसे परमाणु कहते हैं। किन्तु जीवोंकी चाल इससे सर्वथा भिन्न है। उनका सदा एक रूप रहनेवाला मूल स्वभाव न तो बंध का ही कारण है और न मुक्ति का ही कारण है। जिसे हम बंध और मोक्ष शब्दसे अभिहित करते हैं, वह उनकी अवस्था ही है । मूल स्वभाव तो जैसा पहिले संसार अवस्था में रहता है, ठीक वही मोक्ष अवस्थामें भी बना रहता है। इससे सिद्ध हुआ कि अवस्थाका नाम ही बंध है और स्वयंमें कारण विशेषके मिलनेपर जब वह संसार अवस्था (बंध अवस्था) विलयको प्राप्त होकर मात्र मूल आत्मा स्वभाव पर्याय सहित शेष रह जाता है, तो उसीका नाम मोक्ष है। यह तो न्यायका सिद्धान्त ही है कि कारणके बिना कार्य नहीं होता। साथ ही यह भी नियम है कि स्वयं ही वस्तु अपने व्यतिरेकी स्वभावके कारण कार्यरूपसे परिणमती है। साथ ही यह भी अकाट्य नियम है कि प्रतिसमय होनेवाले प्रत्येक परिणमनके समय उसका कोई बाह्य निमित्त अवश्य होता है। इससे सिद्ध है कि यह संसारी जीव अनादिसे स्वयं ही अज्ञानी और रागीद्वेषी हो रहा है और अनादिसे उसका बाह्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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