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________________ तृतीय खण्ड : ९७ एक मेधावी व्यक्तित्व •स० सि० धन्यकुमार जैन, कटनी पंडितप्रवर श्री फूलचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्री भारतवर्षमें जैन-संसारके गिने-चुने विद्वानोंमेंसे एक हैं। इन्होंने अपने जीवनकालमें जैन-साहित्यकी अनुपम सेवा को है । सिद्धान्तके वस्तुतत्वकी विवेचना-विश्लेषण करनेकी इनकी पद्धति इतनी सरल और रुचिकर है कि गूढ़से गूढ़ वस्तु भी साधारण जिज्ञासुओंके लिए भी सहज और बोधगम्य बन जाती है। श्री फूलचद्रन्जीकी साहित्य-मर्मज्ञता और लेखन-शैली भी अनूठी ही है । साहित्य सृजन, सम्पादन एवं अनुवाद आदिका जितना विपुल कार्य इनके द्वारा सम्पन्न हुआ है, उसका मूल्यांकन भविष्यमें जब इतिहासज्ञ करेंगे, तभी जन साधारण इनकी बहुमुखी प्रतिभाको देख नतमस्तक हो उठेंगे। बड़ेसे बड़े रहस्य-ग्रंथों और कठिनसे कठिनतम स्थलोंको भी अपनी शैली, सूक्ष्म विवेचन और सहास्य और सरलतम भाषामें समझा देनेकी क्षमता मुझे सिर्फ इनमें ही दिखी है । प्रवचनके समय इनकी सम्मोहक वाणी किसीको भी अपनी लपेटने ले सकने में पूर्ण समर्थ है। जैन-वाङ्गमयकी जो अनुपम सेवा इन्होंने की है, उसकी कितनी भी अनुशंसाको जावे, वह थोड़ी ही रहेगी। कुछ मनीषियोंका तो यह मत भी है कि करणानुयोगके जिन दुरूह ग्रंथोंका आलोड़न कर इन्होंने अपनी विशेष कुशलता और जिस सूझ-बूझसे सम्पादन व भाषानुवाद किया है, वह अन्य व्यक्तियोंके लिए केवल कठिन कार्य ही नहीं, बल्कि अशक्य भी सिद्ध होगा। वे वयोवद्ध हैं। सरलता, सात्विकता, सादगी एवं धार्मिकता की वे प्रतिमूर्ति हैं । तेरासी वर्षकी आयुमें भी वे साहित्य-निर्माणमें पर्ण सक्रिय हैं । यद्यपि जराजीर्ण शरीर साहित्य-साधनामें बाधाएँ उपस्थित करता है, किन्तु उनकी वृत्तिको देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि वे जिनवाणीके लिए कृत-संकल्प है। उनका सम्पूर्ण जीवन मानों माँ सरस्वती जिन-वागदेवीको समर्पित है। यसे परिचय एवं सम्पर्क है। उनका भरपूर सान्निध्य भी मुझे मिला है । अपनी स्मृतियों से एक प्रसंगकी चर्चा यदि मैं करूँ, तो शायद यह अप्रासंगिक न होगा। "काफी समयसे जैन-दर्शनके विद्वानोंमें धार्मिक-सैद्धांतिक प्रश्नोंको लेकर मतभेद चले आ रहे थे । इन मतभेदोंको दूर करनेके लिए धर्मबन्धुओंमें काफी दिनोंसे चर्चा चल रही थी। अन्ततोगत्वा जयपुरमें परमपूज्य आचार्य १०८ श्री शिवसागरजी महाराजके सान्निध्यमें विद्वानोंको आमन्त्रित कर, दोनों पक्षके विद्वानोंमें विचार-विनिमय द्वारा मतभेदोंको दूर करनेको योजना बनाई गई थी। सबकी इच्छा थी कि यदि विद्वत्-समाज मतभेदोंको दूर करने एवं सर्वसम्मत निराकरण हूँढ़ने में सफल हो जावें तो जैन-जगता बड़ा हित होगा। मतभेद समाप्त हों, भ्रान्तियाँ निमल हों, तो इससे बड़ी जिनवाणोकी सेवा दूसरी न होगी। पूज्य आचार्यश्रीके संघकी उपस्थितिमें सन् १९३३में, जयपुरमें इसी सद्हेतुसे तत्वचर्चाके लिए एक बृहत विद्वत्-गोष्ठी आयोजित की गई थी। आचार्यश्रीके समक्ष दोनों पक्षोंकी चर्चा चली । ३१ जैन विद्वानोंने गोष्ठीमें भाग लिया। आठ-दस दिनोंमें ग्यारह बैठकें हईं। इतने पर भी जब मतभेदोंका पूर्ण निराकरण होता सम्भव न दिखा, तब अन्तमें मतभेद-मूलक प्रश्नोंको लिखित रूपसे प्रस्तुत करनेका मार्ग निर्धारित किया गया । विवाद चलता रहा । गोष्ठियाँ होती रहीं। इसी क्रममें सन् ६६में मतभेद-मूलक प्रश्नोंके लिखित समाधानों पर विचार एवं समीक्षा करने हेतु एक बैठक कटनी नगरमें भी आयोजित की गई। आमंत्रण मिलने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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