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________________ ९४ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ जिनके प्रति मेरे मनमें सबसे अधिक आदरके भाव हैं ● पं० बलभद्र जैन, आगरा दुबले पतले, गोमुखी और लम्बे, खद्दरके परिधानसे विभूषित, जिनके माथे की लकीरोंमें अगाध विद्वत्ता की लिपि उजागर है— उनका नाम है पंडित फूलचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्री । उन्होंने धवल, जयधवल, महाघवल, सर्वार्थसिद्धि जैसे सिद्धांत ग्रन्थोंकी टीका की । वे करणानुयोग और जैन कर्मसिद्धान्तके अधिकारी विद्वान् हैं । बात उन दिनोंकी है, जब मैं जैन सन्देश साप्ताहिकका सम्पादक था । जैन समाजमें 'संजद पदकी चर्चा गर्म थी । डॉ० हीरालालजीका एक लेख आया, जिसमें प्रबल युक्तियों द्वारा पूज्य आचार्य शान्तिसागरजी महाराजके अभिमतका समर्थन किया गया था । मैंने उसे इस टिप्पणीके साथ प्रकाशित किया कि यदि संजद पद समर्थक किसी विद्वान्ने इसका उत्तर भेजा, तो उसे इन स्तम्भों में सहर्ष स्थान दिया जायगा । तभी मुझे पंडित फूलचन्द्रजीका उत्तर मिला, जो डाक्टर साहबकी युक्तियोंका अनेक शास्त्रीय प्रमाणों और तर्कों द्वारा निराकरण करने वाला था । उसे पढ़कर मुझे लगा कि सिद्धान्तपर पण्डितजीकी पकड़ कितनी गहरी और दृष्टि कितनी पैनी है, उतनी शायद दूसरे विद्वानोंकी नहीं है । पत्रमें वह लेख छपा और दोनों विद्वानों की यह लेखमाला महीनों तक चली। इस बीच इस सम्बन्धमें मैंने अन्य कई विद्वानोंके भी लेख प्रकाशित किये । किन्तु विज्ञ पाठकों का अभिमत यही रहा कि पंडितजीके लेखोंमें परम्परा के अनुकूल जो युक्ति प्रमाण एवं गाम्भीर्य और प्रौढ़ता दर्शन होते हैं, वे अन्य लेखों में परिलक्षित नहीं होते । मैं उनकी प्रौढ़ एवं गम्भीर विद्वत्ताका तभी से कायल हूँ और मेरे मनमें उनके प्रति गहरे आदरके भाव है । दूसरा अवसर खानियाकी चर्चाके समय आया । उस चर्चा के दो परिणाम समाजके सामने आये । एक तो कानजी स्वामीकी सैद्धान्तिक मान्यताओंकी कमजोरी एवं शास्त्रीय समर्थन - ये दोनों पक्ष उजागर हुए, दूसरे जो विद्वान् छद्म रूपमें अपने आपको आर्षमार्गानुयायी कहकर समाज में अपनी प्रतिष्ठाको भुना रहे थे, किन्तु वस्तुतः जो कानजी स्वामीके पृष्ठ पोषक और पक्ष समर्थक थे, उनका वास्तविक रूप समाजके सामने प्रगट हो गया । इसका परिणाम यह हुआ कि वे कानजी स्वामीके कैम्पमें अपनी जड़ नहीं जमा पाये और आर्षमार्गी श्रद्धालु वर्गकी श्रद्धा से वंचित हो गये । उनकी स्थिति 'इतो भ्रष्टस्ततो भ्रष्टः ' गई । किन्तु इस प्रसंग में मैं पंडित फूलचन्द्रजीकी सराहना किये बिना नहीं रहूँगा कि उन्होंने अपने आपको उसी रूपमें पेश किया, जो वे वास्तवमें हैं । अपने विचारोंके प्रति उनका यह न्याय था, यह उनकी ईमानदारी और नैतिकता थी । खानियाकी यह चर्चा सैद्धान्तिक थी । यह चर्चा दोनों पक्षोंकी ओरसे पुस्तककाररूपमें प्रकाशित हो चुकी है । दोनों पक्षोंकी इस चर्चाका मैंने सावधानीके साथ अध्ययन किया है । इसे पढ़कर मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि कानजी पक्ष निमित्त उपादान, पुण्य-पाप, शुभ-अशुभ भाव, अन्तरंग - बहिरंग चारित्र, निश्चय - व्यवहार आदिकी चर्चा करते हुए निमित्तकी उपेक्षा, पुण्यकी हेयता, शुभ भावोंको मोक्षमार्ग में अनुपयोगिता, बहिरंग चारित्र उपेक्षा और व्यवहारकी सर्वथा अस्कतार्थता पर विशेष जोर देता है, वह केवल बौद्धिक व्यायाम है, इन मान्यताओं का कोई शास्त्रीय आधार नहीं है और ये विचार जैन संस्कृति और परम्पराके विघातक भी हैं । किन्तु क्रमबद्ध पर्यायकी मान्यताका कोई युक्तिसंगत उत्तर आर्षमार्गे पक्ष के पास नहीं है । इस परिचर्चा में कानजी पक्षका प्रतिनिधित्व पण्डितजीने जिस दृढ़ता एवं आत्मविश्वास के साथ किया । उससे पण्डितजीने सभी श्रोताओं पर यह छाप अंकित कर दी कि कानजी कैम्पमें सैद्धांतिक पक्षका प्रतिपादन करनेकी क्षमता रखनेवाला और अधिकारी विद्वान् पंडित फूलचन्द्रजीको छोड़कर दूसरा कोई विद्वान् नहीं है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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