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________________ ८२ : श्री महावीर जैन विद्यालय सुवर्णमहोत्सव ग्रन्थ तीन छत्र भी दर्शनीय हैं। छत्रोंके अगल-बगल सुसज्जित हाथी दिखाये गये हैं, जिनकी पीठके पीछे कलापूर्ण स्तम्भ हैं। हाथियों के नीचे हाथोंमें माला लिये हुए दो विद्याधर अंकित हैं। प्रधान तथा छोटी तीर्थकर प्रतिमाओंके पार्श्वमें चौरी-वाहक दिखाये गये हैं। मूर्तिकी चौकी भी काफी अलंकृत है। उसके बीच में चक्र है, जिसके दोनों ओर एक-एक सिंह दिखाया गया हैं। चक्रके ऊपर कीर्तिमुखका चित्रण है। चौकीके एक किनारे पर धन के देवता कुबेर दिखाये गये हैं और दूसरी और गोदमें बच्चा लिये देवी अंबिका हैं। चौकीके निचले पहलू पर एक पंक्तिमें ब्राह्मी लेख है जो इस प्रकार है-श्री विरद्धमन समिदेवः। स्म १०६७ राणलसुत्त भरथ प्रतिमा प्रठपि। (अर्थात् संवत् १०६७में राणलके पुत्र भरथ (भरत) द्वारा श्री वर्द्धमान स्वामीकी मूर्ति प्रतिष्ठापित की गई। लेखकी भाषा शुद्ध संस्कृत नहीं है। पहला अंश 'श्री वर्द्धमानस्वामिदेवः'का बिगड़ा हुआ रूप है। 'स्म' शब्द विक्रम संवत् के लिये प्रयुक्त हुआ है। ऐसा मानने पर मूर्तिकी प्रतिष्ठाकी तिथि १०१०ई० आती है। पारसनाथ किलेसे इस अभिलिखित मूर्ति तथा समकालीन अन्य मूर्तियोंके प्राप्त होनेसे पता चलता है कि १०वीं-११वीं शतीमें पारसनाथ किला जैन धर्मका एक अच्छा केन्द्र हो गया था। जान पड़ता है कि वहां एक बड़ा जैन विहार भी था। इस स्थानकी खुदाईसे प्राचीन इमारतोंके ई अवशेष प्रकाशमें आये हैं। किलाका सर्वेक्षण और उत्खनन करने पर अधिक महत्वपूर्ण वस्तुएँ प्राप्त हो सकेंगी। पारसनाथ किलाकी जो आंशिक सफाई हुई है उसमें अनेक बेल-बूटेदार इंटें, पत्थरके कलापूर्ण खंभे, सिरदल, देहली तथा तीर्थकर मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं। अनेक शिलापट्टों पर बेल-बूटेका काम बहुत सुन्दर है। एक पत्थर पर संगीतमें संलग्न स्त्री-पुरुषोंकी मूर्तिया उकेरी हुई हैं। इन अवशेषोंमेंसे मुख्यका परिचय नीचे दिया जाता है सं० १-दर्वाजेका सिरदल-इस सिरदलके बीचमें कमल-पुष्पोंके ऊपर दो सिंह बैठे हुए दिखाये गये हैं। सिंहासनके ऊपर भगवान् तीर्थकर ध्यानमुद्रामें अवस्थित हैं। उनके अगल-नगल एक-एक तीर्थकर मूर्ति खड्गासनमें दिखाई गई है। मध्य भागके दोनों ओर भी इसी प्रकारका चित्रण है। सिरदलके दोनों कोनों पर एक-एक तीर्थकर प्रतिमा खड्गासनमें दो खम्भोंके बीच में बनी है। सभी तीर्थंकरोंके ऊपर छत्र हैं। सं० २-देहलीका भाग-यह अवशेष उस स्थानसे प्राप्त हआ जहांसे भगवान महावीरजीकी बडी प्रतिमा मिली है। इसके बीच में कल्पवृक्षका अलंकरण है, जिसके प्रत्येक ओर दो-दो देवता हाथमें मंगल घट लिए हुए खड़े हैं। उनके खड़े होनेका त्रिभंगी भाव बहुत आकर्षक है। इस पत्थरमें किनारेकी ओर शेरकी मूर्ति है। ऐसी ही मूर्ति पत्थरके दायें कोने पर भी थी, जो टूट गई है। सं० ३–संगीतका दृश्य-एक अन्य देहली पर, जो किलेके बीचसे मिली थी, संगीतका दृश्य बड़ी सुन्दरतासे प्रदर्शित किया गया है। इसमें एक ओर कई आकृतियाँ तथा अलंकरण बने हैं तथा दूसरी और भावपूर्ण मुद्रामें एक युवती नृत्य कर रही है। उसके अगल-बगल मृदंग और मंजीर बजाने वाले पुरुष उकेरे हुए हैं। इन तीनोंकी वेषभूषा बड़े कलापूर्ण ढंगसे दिखाई गई है। सं०४-द्वार-स्तम्भ-पारसनाथ किलेसे अनेक सुन्दर द्वार-स्तम्भ भी मिले हैं। एक स्तम्भके नीचे मकरके ऊपर खडी हुई गंगा दिखाई गई हैं। उनके अगल-बगल दो परिचारिकाएँ त्रिभंगी भावमें प्रदर्शित हैं। ये मूर्तियां ग्रैवेयक, स्तनहार, किंकिणि सहित मेखला नथा अन्य अलंकरण धारण किये हुए हैं। खंभेके ऊपर पत्रावलीका अंकन दिखाया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012002
Book TitleMahavira Jain Vidyalay Suvarna Mahotsav Granth Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Jain Vidyalaya Mumbai
PublisherMahavir Jain Vidyalay
Publication Year1968
Total Pages950
LanguageGujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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