SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 450
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन पुराण साहित्य : ७५ हरिवंश संबंधी अपभ्रंशकी प्रथम कृति स्वयंभूदेवकी है जिसका अपरनाम रिहणेमिचरिउ है। यह तीन कांडोंमें विभक्त है तथा ११२ संधिवाला ग्रन्थ है। इसकी कथाका आधार जिनसेनका हरिवंशपुराण है। धवल(११वीं-१२वीं शताब्दी वि० सं०)का हरिवंशपुराण ११२ संधियों में काव्यात्मक ढंगसे लिखा गया है। सोलहवीं शताब्दीकी अन्य दो कृतियाँ यशःकीर्ति और श्रुतकीर्तिकीप्राप्त है। प्रथम १३ और द्वितीय ४४ संधियोंमें विभक्त हैं। कवि रइधूने भी हरिवंशपुराणकी रचना की है। रामायण और महाभारतके पश्चात् कालकी दृष्टि से महापुराणोंकी बारी आती है, जिनमें त्रिषष्टिशलाका पुरुषों अथवा चौबीस तीर्थंकरों आदिके चरितोंका वर्णन आता है। इनकी शुरूआत भी प्राकृत भाषासे ही होती है। शीलांकाचार्य(९२५ वि० सं०)का चउपन्नमहापुरिसचरिय ऐसी ही एक रचना है। ग्रन्थ के शीर्षकसे प्रतीत होता है कि नौ प्रतिवासुदेवोंको शलाका पुरुषों में नहीं गिना गया है, जैसा कि समवायांगसे भी सूचित है। यह गद्य-प्रधान रचना है। इसकी रामकथा पर वाल्मीकी रामायणका प्रभाव शूर्पणखाके नाम तथा स्वर्णमृगसे स्पष्ट है तथापि शेष कथा विमलसूरिके अनुसार है। भद्रेश्वर(१२-१३वीं शताब्दी)की कहावलिमें शलाका पुरुषोंका चरित वर्णित है। यह रचना गद्यप्रधान है। इसकी रामकथामें रावणके चित्र का उल्लेख ध्यान देने योग्य है। महापुरुष-चरितकारोंमें आम्रसूरिका भी नाम लिया जाता है। संस्कृतमें इस संबंधमें महत्त्वपूर्ण रचना महापुराण है। इसका प्रथम भाग आदिपुराण जिनसेनाचार्य (१० शताब्दी) कृत है तथा द्वितीय भाग उत्तरपुराण उनके शिष्य गुणभद्रकी रचना है। उत्तरपुराणकी रामकथा वाल्मीकिरामायण व पउमचरियसे भिन्न है। आदि पुराणमें प्रथम तीर्थकर व प्रथम चक्रवर्ती तथा उत्तरपुराणमें शेष शलाका पुरुषोंके चरित्र वणित हैं। आचार्य मल्लिषेणने ११०४ वि० सं०में अपने महापुराणकी रचना की थी। पन्द्रहवीं शताब्दीके भ० सकलकीर्ति आदिपुराण और उत्तरपुराण के रचयिता है। हेमचन्द्राचार्य(१३वीं शती प्रथमपाद)का त्रिषष्टि-शलाका-पुरुष-चरित १० पा में विभक्त है। इसका अन्तिम भाग परिशिष्ट-पर्व ऐतिहासिक महत्त्व रखता है। आशाधर (१२९२वि० सं०)के त्रिषष्टि-स्मृति-शास्त्रमें शलाका पुरुषोंका संक्षिप्त वर्णन है। त्रिषष्टि-शलाका-पुरुष-चरित विषयक गद्यात्मक रचनाकारोंमें विमलसूरि और वज्रसेन स्मरणीय हैं। जिनसेनके महापुराण पर ललितकीर्ति(१९वीं शती)की संस्कृत टीका तथा पुष्पदंतके उत्तरपुराण पर प्रभाचन्द्र(सं० १०८०)की टीका उपलब्ध है। पुराणसारसंग्रह दामनन्दिकी रचना है जिसमें संक्षेपमें शलाका पुरुषोंका वर्णन है। वैसे मुनि श्रीचन्द्र ११वीं शती और सकलकीर्तिके पुराणसार गद्यात्मक रुपमें उपलब्ध हैं। चतुर्विशतिजिनचरित जिनदत्तसूरिके शिष्य अमरचन्द्र(१३वीं शती)की रचना है जिसमें क्रमशः चौबीस तीर्थंकरोंके चरित दिये गये हैं। रायमल्लाभ्युदय (१६१५ वि० सं०) पमसुन्दरकी रचना है इसमें भी तीर्थकरोंके चरित हैं। इस सम्बन्ध में केशवसेन (सं० १६८८) व प्रभाचन्द्र के कर्णामृतपुराण उल्लेखनीय हैं। अपने महापुरुषचरितमें मेरुतुंगाचार्यने (१४वीं शती) ऋषभनाथ, शांतिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ तथा महावीरस्वामीके चरितोंका वर्णन किया है। इसीको काव्योपदेशशतक व धर्मोपदेशशतक भी कहा गया है। अपभ्रंशमें महापुराण विषयक प्रथम कृति पुष्पदंतका (१०२२ वि० सं०) तिसहि-महापुरिसगुणलंकारु है। इसमें प्रथम ३७ संधियोंमें आदिपुराण तथा शेष ६५ सन्धियोंमें उत्तर पुराणकी कथासामग्री है। रामकथामें गुणभद्रका अनुसरण है। कविकी असाधारण काव्यप्रतिभाके इसमें दर्शन होते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012002
Book TitleMahavira Jain Vidyalay Suvarna Mahotsav Granth Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Jain Vidyalaya Mumbai
PublisherMahavir Jain Vidyalay
Publication Year1968
Total Pages950
LanguageGujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy