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________________ जैन पुराण साहित्य : ७३ पुराणोंका आठवींसे उन्नीसवीं तक और अपभ्रंश पुराणोंका दसवींसे सोलहवीं शताब्दी तक रहा है। प्रचुरताकी दृष्टि से प्राकृत, संस्कृत व अपभ्रंश पुराणोंका उत्कृष्ट काल क्रमशः बारहवीं-तेरहवीं, तेरहवींसे सत्तरहवीं और सोलहवीं शतीका रहा है। इन सबमें भी संस्कृत कृतियोंकी संख्या सर्वोपरि है। प्रायः ये सभी रचनाएँ एक ही भाषामें हैं, परंतु किसी किसी प्राकृत रचनामें कहीं कहीं पर संस्कृत व अपभ्रंश, तो अपभ्रंश रचना में संस्कृत व प्राकृत और उनमें देशी भाषाओंके शब्द भी यत्रतत्र मिलते हैं। ये रचनाएँ अधिकतर पद्यात्मक हैं, परंतु गद्यात्मक रचनाओंका सर्वथा अभाव नहीं है और कुछ कृतियोंमें गद्य और पद्यका मिश्रण भी मिलता है। विक्रमकी छठी शताब्दीसे जब जैन पुराणोंकी रचना प्रारंभ हुी तब तक ब्राह्मणों के मुख्य पुराणों हो चुकी थी। इसलिए उस साहित्य-शैलीके दर्शन जैन पुराणों में भी होते हैं। साथ ही साथ यह भी ध्यान देनेकी वस्तु है कि उस समय तक काव्यात्मक शैलीका प्रादुर्भाव हो चुका था तथा संस्कृत साहित्यमें उत्तरोत्तर कालमें उत्कृष्ट रचनाएं बनती जा रही थीं। इस प्रवाहका प्रभाव जैन पुराण-साहित्य पर भी पड़ा है। जिनसेनाचार्यने तो जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है काव्यतत्त्वको भी पुराणमें स्थान दे दिया है। इस समकालीन प्रभावके कारण जैन पुराणोंमें हम देखेंगे कि कविकी प्रतिभाके अनुसार उन रचनाओंमें छंद, अलंकार, रस-भाव आदि काव्य-गुणों तथा सूक्तियों और सुभाषितोंका तरतम पाया जाता है। कुछ संस्कृत रचनाएँ तो महाकाव्यात्मक शैली के अच्छे उदाहरण हैं। उनमें प्राकृतिक दृश्यों. का वर्णन और रसभावों का कलात्मक चित्रण पाया जाता है। जैन पुराणोंमें पौराणिक शैली और काव्यास्मक शैलीका ऐसा सम्मिश्रण हो गया है कि वह हमें ब्राह्मण पुराणोंमें कम मात्रामें दृष्टिगोचर होता है। जैन पुराणोंकी कुछ विशेषताएँ इस प्रकार हैं: प्रारंभमें तीनों लोक, काल-चक्र व कुलकरोंके प्रादुर्भावका वर्णन होता है। उसके पश्चात् जम्बूद्वीप और भारतदेशका वर्णन करके तीर्थस्थापना तथा वंशविस्तार दिया जाता है। तत्पश्चात् संबंधित पुरुषके चरितका वर्णन प्रारंभ होता है। ये सभी वर्णन एकसे नहीं पाये जाते। कभी संक्षिप्त तो कभी विस्तारसे और कभी कभी सिर्फ उल्लेखमात्रके रूपमें ही। इसके अतिरिक्त उनमें अनेक पूर्वभवोंका विस्तारसे या संक्षेपमें वर्णन पाया जाता है। पूर्वभवकी कथा ओं के साथ साथ प्रसंगानुसार अन्य अवान्तर कथाओंका भी उनमें समावेश हुआ है। इस प्रकार उनमें प्रचलित लोककथाओंके भी दर्शन होते हैं। ये सभी अवान्तर कथाएँ कभी कभी एक तृतीयांश तो कभी आधेसे भी अधिक भाग लिए हुए रहती हैं। साथ ही साथ उनमें उपदेशोंकी कहीं संक्षिप्तता तो कहीं भरमार रहती है। उनमें जैन सिद्धान्तका प्रतिपादन, सत्कर्म-प्रवृत्ति और असत्कर्म-निवृत्ति, संयम, तप, त्याग, वैराग्य आदिकी महिमा, कर्म-सिद्धान्तकी प्रबलता इत्यादि पर भार रहता है। इन प्रसंगों पर मुनियोंका प्रवेश भी पाया जाता है। इनके अतिरिक्त शेष भागमें तीर्थकरकी नगरी, मातापिताका वैभव, गर्भ, जन्म, अतिशय, क्रीडा, शिक्षा, दीक्षा, प्रव्रज्या, तपस्या, परिषह, उपसर्ग, केवलप्राप्ति, समवसरण, धर्मोपदेश, विहार, निर्वाण इत्यादिका वर्णन संक्षेपमें या विस्तारसे सरलरूपमें या कल्पनामय अथवा लालित्य और अलंकारमय रूपमें पाया जाता है। सांस्कृतिक दृष्टि से इन ग्रंथोंमें भाषातत्त्वका विकास, सामान्य जीवनका चित्रण तथा रीतिरिवाज इत्यादिके दर्शन होते है जो काफी महत्त्वपूर्ण है। भारतीय जनताको रामायण और महाभारत बहुत ही प्रिय रहे हैं और जैन पुराण साहित्यका श्रीगणेश भी इन्हीं दो ग्रंथोंसे होता है। उपलब्ध जैन पुराणसाहित्यमें प्राचीनतम कृति प्राकृत भाषा में है। यह विमलसूरि (५३० वि. सं०) की पउमचरियं (पामचरितम्) नामक रचना है। इसमें आठवें बलदेव दाशरथी राम (पद्म), वासुदेव लक्ष्मण तथा प्रतिवासुदेव रावणका चरित वर्णित है। कितनी ही बातोंमें इसकी कथा वाल्मीकि रामायण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012002
Book TitleMahavira Jain Vidyalay Suvarna Mahotsav Granth Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Jain Vidyalaya Mumbai
PublisherMahavir Jain Vidyalay
Publication Year1968
Total Pages950
LanguageGujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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