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________________ ४८ : श्री महावीर जैन विद्यालय सुवर्णमहोत्सव ग्रन्थ कनिंघम के बाद भी लोगोंने उनपर लिखा है अवश्य, किन्तु वह सब कनिंघम साहबकी नकल अथवा उनके कथनका सारांश मात्र ही है। कनिंघमने उक्त मूत्तियों की कलासे प्रभावित होकर लिखा है':-- The (Jaina) rock sculptures of Gwalior are unique in northern India, as well for their number, as for their gigantic size. इण्डियन स्टेट रेलवे के प्रकाशन विभागने भी अपनी ग्वालियर सम्बधी एक पुस्तिकामें उक्त मूर्तियोंको Rock giants की उपमा देते हए लिखा है: Round the base of Gwalior-fort are several enormous figures of the Jaina Tirthankaras or pontiffs which vie in dignity with the colossol effigies of that greatest of all self advertisers, Ramses II, who plastered Egypt with records of himself and his acheivements. These Jaina statues were excavated from 1440-73. A.D. उपलब्ध विविध सामग्री के आधार पर लिखित यही है ग्वालियर-दुर्गकी कुछ जैनमूर्तियोंकी अतिसंक्षिप्त कहानी। ग्वालियर-दुर्गको जब “Pearl in necklace of the castles of Hind" कहा गया है तब भला उसमें सामान्य मूर्तियोंका निर्माण कैसे किया-कराया जाता? उनका कला-वैभव अद्भत है। वे अपनी सौम्यता एवं भव्यतामें होड़ लगाती-सी प्रतीत होती हैं। जिन मर्मी कुशल कलाकारोंने इन्हें गढ़ा होगा वे आज हमारे सम्मुख नहीं हैं, उनके नाम भी अज्ञात हैं, उन्होंने इसकी परवाह भी न की होगी किन्तु उनकी अनोखी कला, अनुपम शिल्प-कौशल, अतुलित धैर्य एवं अटूट साधना मानों इन मूर्तियोंके माध्यमसे हमारे सामने साकार उपस्थित है। और उनके निर्माता संघवी कमलसिंह, खेल्हा, असपति, नेमदास एवं सहदेवके सम्बन्धमें क्या लिखा जाय ? उनके आस्थावान् विशाल हृदयोंमें जो श्रद्धा-भक्ति समाहित थी, उसके मापन हेतु विश्वमें शायद ही कहीं मापयन्त्र मिल सके। हाँ, जिनके 'दिव्य नेत्र विकसित हैं, जो कला-विज्ञानकी अन्तरात्माके निष्णात हैं, जो इतिहास एवं संस्कृति के अमृतरसमें सराबोर हैं, वे उक्त मूर्तियोंकी भव्यता, सौम्यता, विशालता एवं कलाका सूक्ष्म निरीक्षण कर उनके हृदयकी गहराईका अनुमान अवश्य लगा सकते हैं। और उन निर्माण करानेकी प्रेरणा देकर उनमें प्राणप्रतिष्ठा करानेवाले रइधू! जिसकी महती कृपासे कुरूप, उपेक्षित एवं भद्दे आकारके कर्कश शिलापट्ट भी महानता, शान्ति एवं तपस्याके महान आदर्श बन गये, ऊबड़-खाबड़ एवं भयानक स्थान तीर्थस्थलोंमें बदल गये, उत्पीडित एवं सन्तप्त प्राणियोंके लिये जो आराधना, साधना एवं मनोरथप्राप्तिके पवित्र मन्दिर एवं वरदानगृह बन गये। ज्ञानामृतकी अजस्र धारा प्रवाहित करनेवाले उस महान् आत्मा, सुधी, महाकवि रहधूके गुणोंका स्तवन भी कैसे किया जाय? मेरी दृष्टिसे उसके समग्र कार्योंका प्रामाणिक विवेचन एवं प्रकाशन ही उसके गुणोंका स्तवन एवं उसके प्रति मच्ची श्रद्धाञ्जलि होगी तथा साहित्य और कला जगत् तभी उसके महान् ऋणसे उऋण हो सकेगा। १ २ Murry's Northern India, Pages 381-382. 'Gwalior' published by the publicity Deptt. Indian state Rly. 1956. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012002
Book TitleMahavira Jain Vidyalay Suvarna Mahotsav Granth Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Jain Vidyalaya Mumbai
PublisherMahavir Jain Vidyalay
Publication Year1968
Total Pages950
LanguageGujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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