SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 401
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २८ : श्री महावीर जैन विद्यालय सुवर्णमहोत्सव ग्रन्थ श्रीजिनप्रबोधसूरि (चतुः) सप्तिका। यह रचना भी ७४ प्राकृत गाथाओंमें है। इसके रचयिता विवेकसमुद्र गणि है। ओसवाल साहू खींवडके पत्र श्रीचंद और उनकी पत्नी सिरियादेवीके कुलमें चंद्रमाके सदृश आप थे। आपका जन्म गुजरातके थारापद्र नगर में सं० १२८५के मिती श्रावण सुदि ४के दिन पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्रमें हुआ, आपका जन्मनाम मोहन रखा गया। सं० १२९६ मिती फाल्गुन बदि ५के दिन श्रीजिनेश्वरसूरिजी महाराजने आपको पालनपुरमें दीक्षित किया। गुरुमहाराजने आपका नाम प्रबोधमूर्ति रखा जो कि स्वसमय-परसमय ज्ञाता होनेसे सार्थक हो गया। सं० १३३१के मिती आश्विन कृष्ण ५के दिन स्वयं श्रीजिनेश्वरसूरिने उन्हें अपने पट्ट पर विराजमान किया। उनके स्वर्गवासके पश्चात् श्रीजिनरत्नसूरिजीने दशों दिशाओंसे आये हुए चतुर्विध संघके समक्ष सं० १३३१ मिती फाल्गुन कृष्ण ८के दिन जावालिपुरमें नाना उत्सव-महोत्सवपूर्वक श्री जिनप्रबोधसूरिका पट्टाभिषेक किया। आपने वृत्ति-पंजिका सहित बोध नामक ग्रंथ त्रयकी रचना की। आप बड़े भारी विद्वान, प्रभावक और गच्छभार धुरा धुरंधर हुए। श्रीजिनकुशलसूरि-चहुत्तरी यह प्राकृत रचना श्रीतरुणप्रभाचार्य द्वारा ७४ गाथाओंमें रचित है। इनमें सर्वप्रथम कल्पवृक्षके सदृश गुरुवर श्रीजिनचंद्रसूरि और भगवान पार्श्वनाथको नमस्कार करके युगप्रधान, अतिशयधारी सद्गुरु श्रीजिनकुशलसूरिजीका गुणवर्णन करनेका संकल्प करते हुए तरुणप्रभाचार्य महाराज कहते हैं कि मारवाडके समियाणा नगर में मंत्रीश्वर देवराज के पुत्र जिल्हा नामक थे। वे धर्मात्मा थे, उनकी बुद्धि अर्थ और कामके वनिस्पत धर्मध्यानमें विशेष गतिशील थी। उसकी शीलवती स्त्रीका नाम जयतश्री था जिसकी कुक्षीसे वि० सं० १३३७के मिती मार्गशीर्ष वदि ३ सोमवार के दिन शुभवेलामें चंद्रमादि उच्चस्थान स्थिति समयमें पुनर्वसु नक्षत्र में आपका जन्म हुआ। शुभ कर्म साधनामें सकर्म, लघुकर्मी होनेसे आपका नाम कर्मणकुमार रखा गया। सं० १३४६ मिती फाल्गुन सुदि ८ के दिन समियाणाके श्रीशांति जिनप्रासादमें श्रीजिनचंद्रसूरिजीके करकमलोंसे आपकी दीक्षा हुई। महोपाध्याय श्रीविवेकसमुद्र गणिकी चरण सेवामें रहकर आपने विद्याध्ययन किया और विद्यारूपी स्वर्णपुरुषकी सिद्धि की। उस स्वर्णपुरुषके दो व्याकरण रूपी दो चरण, छंद-जानु, काव्यालंकार उरुसंघि, नाटक रूपी कटिमंडल, गणित नाभि संवत्त, ज्योतिष-निमित्त गर्त, धर्म-शास्त्र रूपी हृदय, मूलश्रुतस्कंध बाहु, छेदसूत्र हाथ, छतर्क उत्तमांग आदि अंगोपांग थे। गुणश्रेणी रूपी शिव-निसेणी पर आरूढ होकर मिथ्यात्त्व पटको देशना शक्तिसे फाड़ डाला। उच्च चारित्रके प्रभावसे कषायोंको उपशांत किया, ब्रह्मचर्य रूपी तीरसे कामसेनापतिका हनन कर डाला। अध्यवसान चक्रधारासे मोहराजको निहतकर जयजयकार कीर्तिपताका दशोदिशिमें प्रसारित की। गुरुवर्य श्रीजिनचंद्रसूरिजीने चरित्रनायककी योग्यतासे प्रभावित होकर सं० १३७५ मिती माघ सुदि १२के दिन नागपुरके जिनालयमें बड़े भारी संघके मेलेमें चरित्रनायकको वाचनाचार्य पदसे अलंकृत किया। तत्पश्चात् विक्रम सं० १३७७ मिती ज्येष्ठ कृष्णा ११ गुरुवारको गुरुनिर्देशानुसार पाटण नगरके श्रीशांतिनाथ जिनालयमें आचार्य श्रीराजेन्द्रचन्द्रसूरिने युगप्रधान श्रीजिनचंद्रसूरिजीके पट्ट पर इनको स्थापित करके जिनकुशलसूरि नाम प्रसिद्ध किया। इन्होंने महातीर्थ शत्रुञ्जयके शिखर पर मानतुंग प्रासादमें ऋषभदेव स्वामीकी प्रतिष्ठा की। शत्रुजय, अणहिलपुर, जालोर, देरावर आदि अनेक स्थानोंमें जिनबिम्बोंकी स्थापना की। जेसलमेर में मूलनायककी स्थापना की। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012002
Book TitleMahavira Jain Vidyalay Suvarna Mahotsav Granth Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Jain Vidyalaya Mumbai
PublisherMahavir Jain Vidyalay
Publication Year1968
Total Pages950
LanguageGujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy