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________________ २२ : श्री महावीर जैन विद्यालय सुवर्णमहोत्सव प्रन्थ शैलीके लिए प्रसिद्ध है। यह सातवीं शतीके पुलकेशी द्वितीयके समयका है। उस स्थानका मेघुटी मन्दिर रविकीर्तिने बनवाया था। बादामी और ऐहोलकी जैन गुफाओंकी रचना इसी समयमें हुयी थी। पश्चिमी चालुक्य वंशके संस्थापक तैलप द्वितीय(१०वीं शती)को जैन धर्मके प्रति अच्छी आस्था थी। इसी के आश्रयमें कविरत्न रणने अजितपुराण कन्नड भाषामें लिखा था। दशवीं शतीकी एक सेनानायककी पुत्री अत्तिमब्बे अपनी दानशीलताके लिए उल्लेखनीय है। ११वीं शतीमें भी इसी प्रकारका सहारा जैनोंको मिलता रहा। वादिराजका पार्श्वनाथचरित उसी समयका है। श्रीधराचार्यकी ज्योतिषविषयक कृति कन्नडमें सबसे पुरानी रचना है, जो सोमेश्वर प्रथम के समय में रची गयी थी। इस वंशके अन्य राजाओंने भी जैनधर्मकी उन्नति के लिए पर्याप्त सहायता की। इस प्रकार यह राजवंश जैन धर्मका संरक्षक रहा तथा साहित्यसृजनमें इसने काफी प्रोत्साहन दिया। जैन मन्दिरों और संस्थाओंको दानके जरिये इनके द्वारा बल मिलता रहा। होयसल राजवंशको ११वीं शती में संस्थापित करनेका श्रेय एक जैन मुनिको ही है। मुनि वर्धमानदेवका प्रभाव विनयादित्य के शासन प्रबन्ध पर काफी बना रहा। कितने ही अन्य राजाओं के द्वारा जैन संस्थाओं को लगातार सहायता मिलती रही है। कुछ राजाओंके गुरु जैनाचार्य रहे हैं। १२वीं शतीके नरेश विष्णुवर्धन पहले जैन थे परन्तु बादमें रामानुजाचार्य के प्रभावमें आकर विष्णु धर्म स्वीकार किया। उस समयसे विष्णु धर्मका प्रभाव बढ़ता गया, फिर भी शिलालेखोंसे उनका जैन धर्मके प्रति प्रेम झलकता है। उनकी रानी शांतलदेवीने तो आजन्म जैन धर्मका पालन किया। विष्णुवर्धन के कई सेनापति और मंत्री जैन धर्मके उद्धारक बने रहें। गंगराज, उनकी पत्नी लक्ष्मीमती, बोप्प, मरियाने, भरतेश्वर आदि इस संबंधमें उल्लेखनीय हैं। उसके बाद नरसिंह प्रथम, वीर बल्लाल, नरसिंह तृतीय तथा अनेक राजाओंने जैन मंदिर बनाये, दान दिया तथा जैन धर्मको समृद्धिशाली बनाया। इस प्रकार बारहवीं-तेरहवीं शती तक जैनों का अच्छा प्रभाव रहा है। नरसिंह प्रथमके चार सेनानायक तथा दो मंत्री जैन थे। वीर बल्लालके शासनमें भी कितने ही जैन मंत्री और सेनानायक थे। इनके अलावा छोटे छोटे राजघरानोंने भी ८वींसे १३वीं शती तक जैन धर्मका पोषण किया। इस कारण यह धर्म सार्वजनिक बन सका तथा सभी दिशाओंसे इसको बल मिलता रहा। ऐसे घरानोंमें सान्तर नरेश, कांगल्व और चांगल्वों तथा करहाडके शीलहार राजपुरुषोंके जैनोपकारी कार्योको गिनाया जा सकता है। इनके साथ साथ अनेक सामन्त, मंत्री, सेनापति, सेठ, साहूकार और कई महिलाओंके धर्मप्रभावनाके विविध तरहके वैयक्तिक कार्योंको ध्यानमें लिया जा सकता है। विजयानगर काल _ विजयानगर साम्राज्यकी स्थापना १४वीं शती में हुयी। उस समय जैन धर्म अस्वस्थ अवस्थामें था। परंतु सहनशीलता और धर्मनिरपेक्षताकी जो उदारनीति वहाँ के राजाओंने अपनायी इससे जैन धर्मको काफी राहत मिली। बुक्कराय प्रथम जैनों के शरणदाता थे। सेनानायक इरुगप्प जैन था, उसके कारण जैन धर्मको १४-१५वीं शती में प्रोत्साहन मिला। श्रवणबेलगोला, बेलूर, हलेबीड इत्यादि स्थानोंमें अन्य धर्मावलंबियोंने जैनों के साथ प्रेमभावना बढ़ायी। पन्द्रहवीं शतीके देवराव प्रथम तथा द्वितीयने जैनोंको सहायता दी थी। विजयानगरकी मुख्य राजधानीमें जैनोंकी जड़ें इतनी मजबूत नहीं थी, परंतु जिलोंमें अधिकृत राज्यघरानोंके आश्रयमें जैन धर्मका पोषण अच्छी तरहसे होता रहा। १६वीं शतीके कवि मंगरसने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012002
Book TitleMahavira Jain Vidyalay Suvarna Mahotsav Granth Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Jain Vidyalaya Mumbai
PublisherMahavir Jain Vidyalay
Publication Year1968
Total Pages950
LanguageGujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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