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________________ जैन धर्मका प्रसार : १९ कहाँसे पहुँचा होगा। इसका उत्तर खोजते समय स्वाभाविक तौरसे यही कहना पड़ता है कि ई० पूर्व पांचवीं और चौथी शतीमें कलिंग-आन्ध्र तथा तामिल देशसे होता हुआ वह लंकामें आया होगा। अतः भद्रबाहु दक्षिण देशमें जैन धर्म के आदि प्रवर्तक नहीं वरन् उसको पुनः जाग्रत करने वाले थे। जिस प्रकार एक धारा आन्ध्र देशसे दक्षिण देशमें गयी उसी प्रकार भद्रबाहुके कालसे दूसरी धारा कर्नाटकसे दक्षिण देशको जैन धर्मसे आप्लावित करती रही। इस धाराका ईसाकी प्रथम १०-१२ शताब्दियों तक दक्षिणमें अविच्छिन्न स्रोत बहता रहा है। वहाँके अनेक ध्वंसावशेषों, मंदिर व मूर्तियोंसे यही सिद्ध होता है कि यह धर्म वहां पर लोकप्रिय रहा है। पूरे के पूरे राजवंशों के साथ इसका जिस प्रकारका दीर्घकालीन संबंध रहा है वैसा उत्तर भारतमें भी नहीं रहा। इस दृष्टिसे दक्षिण देशके प्राचीन इतिहासमें जैन युगों के दर्शन किये जा सकते हैं। द्रविड़ प्रदेश चन्द्रगुप्त के प्रपौत्र सम्प्रतिने जैनधर्म के प्रचारमें जो योग दिया था उसके कारण तामिल (द्राविड़) देशमें भी जैन धर्म को बल मिला था ऐसा साहित्यिक परंपरा बतलाती है। इस प्रसंगमें ई० पू० दूसरीतीसरी शती के ब्राह्मी लिपिके शिलालेख तथा ईसाकी चौथी-पांचवीं शतीकी चित्रकारी उल्लेखनीय है। रामनद (मदुरा), तिन्नावली और सितनवासलकी गुफाओंमें उपर्युक्त जैन प्रमाण मिलते हैं, जिनसे मालूम होता है कि ये स्थल जैन श्रमणों के केन्द्र थे। ईसाकी करीब १५ शताब्दियों तक जैन धर्मने तामिल लोगोंके साहित्य और संस्कृति के साथ गहरा संबंध बनाये रखा है। ईसाकी प्रथम शताब्दियोंमें तामिल देशके साहित्य पर जैनों का प्रभाव तो सुस्पष्ट है। तामिल काव्य कुरल और तोलकाप्पियम इस प्रसंगमें उल्लेखनीय है। कुरलके पश्चात्का अधिकतर शिष्ट साहित्य (Classical) जैनों के आश्रयमें ही फला फूला। पांच प्राचीन महाकाव्योंमेंसे तीन कृतियां तो जैनोंकी हैं। सीलप्पदिकारम् (दूसरी शती), बलयापदि और चिन्तामणि (१०वीं शती) ये तीन जैन ग्रन्थ हैं। अन्य काव्योंमें नीलकेशी, बृहत्कथा, यशोधर काव्य, नागकुमार काव्य, श्रीपुराण आदिका नाम लिया जा सकता है। बौद्ध काव्य मणिमेकल इसे भी प्राचीन कालमें तामिल देश पर जैनोंके प्रभाव और वैभवका काफी दिग्दर्शन होता है। कुरलके अनुसार मैलापुर तथा महाबलिपुरममें जैनोंकी बस्तियां थीं। दूसरी शतीमें मदुरा जैन धर्मका मुख्य केन्द्र था। समन्तभद्रका इस नगरीसे जो संबंध रहा है वह सुविदित है। पांचवीं शतीमें ही वज्रनन्दीने यहां पर द्राविड संघकी स्थापना की थी। कांची प्रदेशके चौथीसे आठवीं शती तकके पल्लव राजाओंमें बहुत-से जैन थे। ह्वेनसांगने सातवीं शती में कांचीको जैनोंका अच्छा केन्द्र माना है। सातवीं-आठवीं शतीके जैन शिलालेख आरकोटके पास पंचपांडव मलय नामक पहाड़ी पर प्राप्त हुए हैं। पांचवीं शतीके पश्चात् कलभ्र राजाओंका अधिकार पाण्ड्य, चोल और चेर राज्यों पर हो गया था। यह जैनोंका उत्कृष्ट काल था क्यों कि कलभ्र राजाओंने जैन धर्म अपनाया था। इसी समय जैन नालदियारकी रचना हुई थी। इस प्रकार पांचवींसे सातवीं शताब्दी तक जैनोंका राजनीति पर भी काफी प्रभाव बना रहा। महान् तार्किक अकलंकाचार्य आठवीं शतीमें ही हुए थे। तत्पश्चात् शैव और १ Studies in South Indian Jainism. I. p. 33. & Jainism in South India. pp. 28, 31, 51, 53. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012002
Book TitleMahavira Jain Vidyalay Suvarna Mahotsav Granth Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Jain Vidyalaya Mumbai
PublisherMahavir Jain Vidyalay
Publication Year1968
Total Pages950
LanguageGujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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