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________________ ४ : श्री महावीर जैन विद्यालय सुवर्णमहोत्सव अन्य सांख्यदर्शनके अनुसार-द्विविध मूलतत्त्व है प्रकृति और पुरुष (आत्मा)। प्रकृति जडात्मिका एक है, परन्तु पुरुष चेतन तथा अनेक है। सांख्य आत्माको नित्य और निष्क्रिय मानते हैं। इसी बातको आचार्य श्री हेमचंद्र जीने 'स्याद्वादमञ्जरी' में निर्देश किया है कि कापिलदर्शनानुसार आत्मा (पुरुष) "अमूर्त' चेतन, भोक्ता, नित्य, सर्वव्यापी, क्रियारहित, अकर्ता, निर्गुण और सूक्ष्म" है। सांख्य जीवको कर्ता नहीं मानते, किन्तु प्रातिभाषिक कर्ता और फलभोक्ता मानते हैं। उनके मतानुसार कर्तृत्वशक्ति प्रकृतिमें हैं। 'मैं हूँ', 'यह मेरा है' इस प्रतीतिके द्वारा आत्माका अस्तित्व निर्विवाद सिद्ध है। बुद्धि में चेतनाशक्तिके प्रतिबिंब पड़नेसे आत्मा (पुरुष) अपनेको अभिन्न समझता है, अतः आत्मामें में सुखी हूँ, दुःखी हूँ, ऐसा ज्ञान होता है। वादमहार्णवमें भी कहा हैं: "दर्पणके समान बुद्धिमें पड़नेवाला पदार्थोंका प्रतिबिंब पुरुषरूपी दर्पणमें प्रतिबिंबित होता है । बुद्धि के प्रतिबिंबका पुरुषमें झलकना ही पुरुषका भोग है, इसीसे पुरुषको भोक्ता कहते हैं। इससे आत्मामें कोई विकार नही आता”४ इसी तरह पतञ्जलि, आसुरि और विन्ध्यवासीने भी अपने विचार व्यक्त किये हैं । मीमांसादर्शनके अनुसार-आत्मा कर्ता तथा भोक्ता है। वह व्यापक और प्रतिशरीरमें भिन्न है। ज्ञान, सुख, दुःख तथा इच्छादि गुण उसमें समवाय सम्बन्धसे रहते हैं। आत्मा ज्ञानसुखादिरूप नहीं है। भाट्ट मीमांसक आत्माको अंशभेदसे ज्ञानस्वरूप और अंशभेदसे जड़ स्वरूप मानता हैं, उनके मतानुसार आत्मा बोध-अबोधरूप है।५ भाट्ट आत्मामें क्रियाके अस्तित्वको मानते हैं, उनके मतानुसार परिणामशील होनेपर भी आत्मा नित्य पदार्थ है। आत्मा चिदंशसे प्रत्येक ज्ञानको प्राप्त करता है और अचिदंशसे वह परिणाम को प्राप्त करता है। कुमारिल आत्माको चैतन्यस्वरूप नहीं किंतु चैतन्य विशिष्ट मानते हैं। शरीर तथा विषयसे संयोग होनेपर आत्मामें चैतन्यका उदय होता है, पर स्वप्नावस्थामें विषयसे संपर्क न होने के कारण आत्मामें चैतन्य नहीं रहता। प्रभाकर आत्मामें क्रियावत्ता नहीं मानते । भादृ मतानुसार आत्मापर विचार करनेपर आत्मबोध होता है। 'मैं हूँ' इसे 'अहंवित्ति' (self-Consciousness) कहते हैं। इसीका विषय (Object) जो पदार्थ होता है वह आत्मा है। प्रभाकर इस मतको नहीं मानता। उसका कथन है कि 'अहंवित्ति' की धारणा ही अयुक्त है। क्योंकि एक ही आत्मा ज्ञाता और ज्ञेय दोनों एक साथ नहीं हो सकता। वेदान्तदर्शनके अनुसार-शंकरका मत विशुद्ध अद्वैतवादका है। उनके मतानुसार स्वभावतः जीव एक और विभु है, परंतु देहादि उपाधियों के कारण नाना प्रतीत होता है। एक विषयका दूसरे विषय के साथ भेद, ज्ञात और शेयका भेद, जीव और ईश्वरका भेद ये सब मायाकी सृष्टि है। उपनिषदोंमें प्रतिपादित १ अमूर्तश्चेतनो भोगी, नित्यः सर्वगतोऽक्रियः । अकर्ता निर्गुण: सूक्ष्मः, आत्मा कापिलदर्शने । स्या० म० पृ० १८६ । २ प्रकृतेरेव वस्तुतः कर्तृत्वम् तच्च प्रकृतिसम्बन्धाज्जीवात्मनि प्रतिभासः, अतस्तत्प्रातिमासिकमिति सांख्याः पातञ्जलाश्च वदन्ति भोक्तृत्वमप्येवमेव । स० द० संग्रह. पृ० ५८ । ३ सांख्यकारिका, ६२ । ४ स्याद्वादमअरी-पृ० १८६ । ५ भादृ । आत्मानमंशभेदेन ज्ञानस्वरूपं जडस्वरूपं चेच्छन्ति । तेषां मत आत्मा बोधाबोधरूप इति-पञ्चदशी-चित्रपद प्रकरण. ६९५ । चिदंशेन दृष्टत्वं सोऽयमिति प्रत्यभिशा, विषयत्वं च अचिदंशेन । ज्ञानसुखादिरूपेण परिणामित्वम् । स आत्मा अहं प्रत्ययेनैव वेद्यः ॥ काश्मीरक सदानन्द-अद्वत ब्रह्मासिद्धि । प्रकरण-पश्चिका. पृ० १४४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012002
Book TitleMahavira Jain Vidyalay Suvarna Mahotsav Granth Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Jain Vidyalaya Mumbai
PublisherMahavir Jain Vidyalay
Publication Year1968
Total Pages950
LanguageGujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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