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________________ व्यसन त्याग आचार, विचारवाले महापुरुषों का अनुभव है कि आहार की शुद्धता का विचारों पर प्रभाव प्रत्यक्ष गोचर व्यक्ति तथा समष्टि के हित की दृष्टि से अहिंसा है । अपने राजयोग में स्वामी विवेकानंद लिखते हैं, के साधक को अपनी प्रवृत्तियों को सदाचार से समलंकृत "हमें उसी प्रकार का आहार ग्रहण करना चाहिए, जो करना आवश्यक है। इन सप्त व्यसनों का परित्याग हमें सबसे अधिक पवित्र मन दे। हाथी आदि बड़े अत्यन्त आवश्यक है, कारण इन व्यसनों से आत्मा जानवर शान्त और नम्र मिलेंगे। सिंह और चीते की का पतन होता है तथा विश्व को भी हानि पहुंचती ओर जाओगे, तो वे उतने ही अशान्त मिलेंगे। यह अन्तर आहार भिन्नता के कारण है।" हिरण शाकाहारी है, बिल्ली मांसाहारी है। दोनों के जीवन का निरीक्षण जुआ, आमिष, मदिरा, दारी, आखेटक, चोरी, परनारी। बताता है कि हिरण जहाँ शान्त रहता है, वहाँ मार्जार ये ही सात व्यसन दुःखदाई, दुरितमूल दूरगति के भाई । क्र रतापूर्ण आचरण के कारण अशांत अवस्था में पाया अहिंसा की साधना द्वारा ही सच्ची सर्वोदय की जाता है। गांधीजी ने अपनी आत्मकथा में लिखा है स्थिति उपलब्ध होती है। सत्य, अचौर्य, शील, अपरि "मन का शरीर के साथ निकट संबंध है । विकार ग्रह, निरभिमानता, संयम आदि सत्यप्रवृत्तियां अहिंसा मुक्त मन विकार पैदा करने वाले भोजन की ही खोज के अंतर्गत हैं । तत्वार्थ सूत्र में कहा है, प्रमत्तयोगात्प्राण में रहता है। विकृत मन नाना प्रकार के स्वादों और व्यपरोपणं हिंसा"-प्रमत्त योग अर्थात् क्रोधादि विकारों भोगों को ढूढता फिरता है और फिर उस आहार और से मुक्त हो प्राणों का घात करना हिंसा है। ऐसी हिंसा भोगों का प्रभाव मन के ऊपर पड़ता है। मेरे अनुभव का त्याग निर्मल मनोवृत्ति पर निर्भर है। उस निर्मल ने तो मुझे यही शिक्षा दी है, कि जब मन संयम की मन:स्थिति के हेतु बाह्य प्रवृत्तियाँ उज्जवल रहनी ओर झुकता है, तब भोजन की मर्यादा तथा उपवास चाहिये। मांस सेवन करने से मनोवृत्ति मलिन होती खूब सहायक होते हैं। इनकी सहायता के बिना मन को है। शराब का सेवन भी आत्मा में विकारी भावों को निर्विकार बनाना असंभव-सा ही मालूम होता है।" उत्पन्न करता है। एक शराब प्रेमी कहता है कि मा- (आत्मकथा ख. 5 पृ. 112-131) वैज्ञानिकों ने इस बात को स्वीकार किया है कि मांस, मदिरा आदि के द्वारा पान से आत्मा को कोई हानि नहीं पहुँचती । मजहब में पक्का विश्वास रखने पर बाहरी स्वच्छन्द आचरण कुछ शक्ति तथा आरोग्य का प्राप्त करना ऐसा ही है जैसे भी क्षति नहीं पहुंचा सकता। खाने-पीने से आत्म चाबुक के जोर से सुस्त घोड़े को तेज करना। विकास तथा धर्म का सम्बन्ध है। वह विलासी जीवन यूरोप के मनीषी महात्मा टाल्सटाय ने कहा है, का प्रतिनिधि बन पूछता है 'मांस खाने से मनुष्य की पाशाविक प्रवृत्तियाँ बढ़ती हैं, जाहिद शराब पीने से काफिर बना मैं क्यों? काम उत्तेजित होता है, व्यभिचार करने और शराब क्या डेढ़ चुल्लु पानी में ईमान बह गया। पीने की इच्छा होती है । इन सब बातों के प्रमाण सच्चे और शुद्ध सदाचारी नवयुवक, विशेषकर स्त्रियाँ और सत्पुरुषों का अनुभव तरुण लड़कियां हैं जो इस बात को साफ साफ कहती यही धारणा हमारे विश्वहित की चिन्ता में निमग्न हैं, कि मांस खाने के बाद काम की उत्तेजना और अन्य रहनेवाले प्रमुख लोगों को मांस, मदिरा आदि को पाशविक वृत्तियां अपने आप प्रबल हो जाती है।" सेवन करने में उत्साहित करती है किन्तु सात्विक उनके ये शब्द विवेकी तथा सच्चे सुधार के प्रेमी को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012001
Book TitleTirthankar Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Malav
PublisherJivaji Vishwavidyalaya Gwalior
Publication Year
Total Pages448
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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