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________________ मन्देश दिया । इस धारणा का कि राजा ईश्वर का अवतार मनुष्य स्वयं भाग्यविधाता : है, संस्कृत देवताओं की भाषा है, और उसमें लिखे कुछ तीर्थकर महावीर ने भाग्यवाद का खण्डन कर ग्रन्थ ईश्वरीय है, खण्डन कर उन्होंने कहा कि कोई भी कहा कि मनुष्य स्वयं ही अपने भाग्य का विधाता है, ग्रन्थ ईश्वरीय नहीं है, वे मनुष्य की ही कृति हैं, मनुष्य कोई अन्य शक्ति न तो उसके भाग्य को निर्धारित ही पहले आया और ग्रन्थ बाद में । राजा देव नहीं, न ही करती है, न ही उसके कर्मों को संचालित । मनुष्य वह ईश्वर का अवतार हैं । महावीर ने कहा कि "राजा भाग्य या कर्म के यंत्र का पूर्जा नहीं है, भाग्य मनुष्य को मनुष्य है, उसे देवता मत कहो, एक सम्पन्न मनुष्य कहो।" नहीं बनाता, मनुष्य स्वयं ही अपने भाग्य का निर्माण देवों पर मानव की महानता : करता है, वह स्वयं ही अपना भाग्य विधाता है। वह स्वयं ही अपने सुख दुःख का कर्ता है। इस प्रकार तीर्थकर महावीर ने समकालीन मानव को मानव माना, तथा स्वयं को भी मानव ही कहा। पुरुषार्थ पर बल : यही कारण है कि अन्य धर्मों की तरह जैन धर्म तीर्थ- सुख प्राप्ति के लिए तीर्थ कर महावीर ने पुरुषार्थ करों के साथ ईश्वरीय अवतार की धारणा नहीं जडी का सन्देश दे सहजता और स्वाभाविकता पर बल दिया है। वे तप व संयम द्वारा कर्मों को क्षय करके, आत्मा उन्होंने कहा कि-"तुम सुख-कहाँ ढूढ़ते हो, वह तो तुममें को साधना से पहचान कर, आत्मस्वभाव के रमण ही स्थित है, सुख बाहर नहीं भीतर है । जिस राग द्वेष, करने की प्रक्रिया से, तीर्थ कर बने । उन्होंने चरित्र की अपने पराए में तुम सुख दुःख की कल्पना कर रहे हो, आवश्यकता तथा पंच महाबत अहिंसा, सत्य, अस्तेय, परिग्रह समृद्धि में सुख खोज रहे हो, वह सुख कहाँ है ? ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह के पालन पर बल दिया । वहाँ तो दुःख का अपरम्पार पारावार लहरा रहा है । उन्होंने स्पष्ट कहा कि कोई ईश्वरीय अवतार नहीं, “सुख अन्त: में स्थित है, जिसे पुरुषार्थ से ही प्राप्त सभी प्राणी समान आत्मा को ग्रहण करते हैं, देव किया जा सकता है।" मानव से उच्च नहीं, वरन् उनके आधीन हैं, जैन वाङ कर्मवाद : मय में ऐसे अनेको उदाहरण भरे पड़े हैं जिनमें देवों द्वारा महामानवों की शरण व स्वागत सत्कार में उप- यही कारण है कि अपने जीवन दर्शन में तीर्थ कर स्थित होने के प्रसंग हैं, जवकि ऐसा एक भी उदाहरण महावीर ने कर्मवाद के मूलमंत्र का प्रयोग किया। नहीं जिसमें मोक्ष प्राप्ति हेत् ईश्वर या देवताओं उन्होंने कहा कि “सिर मुडाने मात्र से कोई श्रमण नहीं या उनके अवतारों की पूजा अर्चना का मार्ग अपनाया हो जाता, ॐ रटने मात्र से कोई ब्राह्मण नहीं होता, उनने अनुसार प्रत्येक मानव सत्कर्मों के द्वारा वनवास भोगने से कोई मुनि नहीं बन जाता, बल्कि दुष्कर्मो को क्षय कर, आत्मसाधना के द्वारा ही मोक्ष समता से ही व्यक्ति श्रमण होता है, ब्रह्मचर्य से ही को प्राप्त कर सकता है। तीर्थकर महावीर करुणा और ब्राह्मण, ज्ञान से ही मुनि तथा तप से ही तपस्वी। आदमी संवेदना के प्रतीक थे । उन्होंने कहा कि मनुष्य की क्षत्रिय, ब्राह्मण वैश्य, शूद्र सिर्फ अपने कार्य से बनता है।" मत्ता सर्वोच्च है। प्रत्येक आत्मा का अपना स्वतन्त्र अस्तित्व है, उसमें अनन्त शक्ति विद्यमान है । इस प्रकार मनुष्य जन्म से नहीं कर्म से महान है : तीर्थकर महावीर ने देवों पर मानव की महानता सिद्ध तीर्थकर महावीर ने कर्मवाद की धारणा दे कर यह कहा कि "मनुष्य जन्म से नहीं कर्म से महान होता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012001
Book TitleTirthankar Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Malav
PublisherJivaji Vishwavidyalaya Gwalior
Publication Year
Total Pages448
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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