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________________ अस्थायी साम्यवाद है। हिंसक साम्यवाद है। अपनी जिस धर्म में केवल अपने आपको जीतना सबसे सम्पत्ति दूसरों में बाँटकर उपयोग करना अहिंसक बड़ी विजय हो, वह वास्तविक साम्यवादी धर्म है। साम्यवाद है । महावीर कहते हैं : आज के लौकिक साम्यवाद से न कहीं सुख है, न कहीं शान्ति, केवल अशान्ति का एक हाहाकार मचा हुआ है। जहाँ लाहौ तहाँ लोहो लाहा लोहो पवडढई । वह साम्यवाद संघर्षवाद बन गया है। अहिंसा और दो मासकय कज्जं कोडीए वि न निठ्ठियं ।। स्याबाद में श्रद्धा रखने वाला अपहरणकर्ता नहीं हो जैसे लाभ होता है. वैसे लोभ होता है, लाभ से । सकता । भगवत् गीता में वणित समत्व की भावना तथा लोभ बढ़ता है। दो माशे सोने से पूरा होने वाला काम भगवान महावीर का समभाव ही असली साम्यवाद करोड़ से भी पूरा नहीं हुआ। महावीर ने कितना सुन्दर बचन कहा है :वे कहते हैं : निम्ममो निरहंकारो निस्संगो चत्तगारवो। सुवण्ण रूप्पस्स तु पव्वया भवे, समोयो सब भूएसु तसेसु थावरेसु य ॥ सिया हु कैलास सभा असंख्या । "ममत्व रहित, अहंकार रहित, निर्लेप गौरव को नरस्स लुद्धस्स न तेहिं किंचि, त्यागने वाला, त्रस और स्थावर सभी जीवों में समभाव इच्छा उ आगास समा अणन्तिया रखने वाला मुनि होता है।" युग का वरदान कदाचित् सोने और चाँदी के कैलाश पर्वत के समान जैन धर्म के मनोयोग, बचनयोग तथा कामयोग के असंख्य पर्वत हो जाये तो भी लोभी पुरुष को उनसे कुछ जातको कोई नहीं काट सकता. हठयोग की कोई भी भी नहीं होता, क्योंकि इच्छा आकाश के समान अनन्त क्रिया बिना इन तीन के पूरी नहीं हो सकती। जीव में दो प्रकान के भोग होते हैं--अभिसंधिभोग--जिसमें वह अपने से काम करता है जैसे चलना, उठना, काम करना, पुनः कहा है : तथा दूसरा है अनुभिसंधि योग जो कार्य निद्रा. ध्यान, "धणेण किं धम्मधूराहिगारे।" चिन्तन के समय होता रहता है। जीव का यही चैतधन से धर्म की गाढ़ी कब चलती है। न्यत्व है। जीव अजीव का संभोग, जीव पुद्गल तथा "न ए नित्तासए परम ।" पर्याय के सिद्धान्त, पदार्थ द्वारा कर्म बंधन इनको दूसरों को त्रस्त मत करो। वैज्ञानिक रूप से भी जिसने समझने की चेष्टा की, वह इस "सत्य" की गरिमा को स्वीकार करेगा, चाहे वह महावीर के अनुसार : किसी धर्म के सम्बन्ध में भी विवेचन करे। जैन दर्शन ने दुष्कर्म का विचार उठाना भी पाप और बन्धन का सले कामी विसे कामा आसी विसोवमा । कारण बतलाया है। आज का न्याय शास्त्र "विचार कामे पत्थेमाणा अकामा जन्ति दो गई । या नीयत" पर बहुत जोर देता है । बौद्ध धर्म में "काम भोग शल्य हैं, विष हैं और आशी विष सर्प "गुप्त गुण" कहा गया है जिसमें कि मनुष्य बिना किसी के तुल्य है। काम-भोग की इच्छा करने वाले, उनका की जानकारी के सद्विचार रखता है और उसका पालन सेवन न करते हुए भी दुर्गति को प्राप्त करते हैं।" करता है। ५२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012001
Book TitleTirthankar Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Malav
PublisherJivaji Vishwavidyalaya Gwalior
Publication Year
Total Pages448
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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