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________________ बुझ गई।" भी उसे बुझा नहीं पा रही थी । कुमार घर की दीवारों भी नहीं देख सकता ।" इसलिए उन्होंने आव्हान • में बन्द रहकर भी मन की दीवारों का अतिक्रमण करने किया : लगे। किसी वस्तु में बद्ध रहकर जीने का अर्थ उनकी दृष्टि में था स्वतन्त्रता का हनन । उन्होंने स्वतन्त्रता वियाणिया दुक्ख विवड्ढणंगणं की साधना के तीन आयाम एक साथ खोल दिये, एक ममतबंध च महब्भय । था अहिंसा, दूसरा सत्य और तीसरा ब्रह्मचर्य । सुहाव्हं धम्मधुरं जनुतरं, अहिंसा की साधना के लिए उन्होंने मैत्री का विकास धारेज्ज निव्वाण गुणवहं महं।। किया । उनसे सूक्ष्म जीवों की हिंसा भी असंभव होगी। सत्य की साधना के लिए वे ध्यान और भावना का "धन को दुख बढ़ानेवाला, ममत्व-बन्धन का कारण अभ्यास करने लगे। मैं अकेला हैं, इस भावना के द्वारा . और भयावह जानकर उस सुखावह, अनुपम और उन्होंने अनासक्ति को साधा और उसके द्वारा आत्मा की महान धर्मधुरा को धारणा करो, जो निर्वाण-गुणों को उपलब्धि का द्वार खोला । ब्रह्मचर्य की साधना के लिए वहन करने वाली है। उन्होंने अस्वाद का अभ्यास किया। शरीर के ममत्व से मुक्ति पा ली, अब्रह्मचर्य की आग अपने-आप हमारे दु:खों का मूल कारण मन की चंचलता है। सोते-जागते, उठते-बैठते, दिन-रात, मन दौड़ लगाता रहता है। उसे जितना दो, उतना ही वह और मांगता वर्तमान युग में हम धन-सम्पत्ति और सत्ता की है। कभी सन्तुष्ट नहीं होता। उसकी चाह बढ़ती ही प्रभुता देखते हैं, लेकिन महाबीर ने उन्हें त्यागा. क्योंकि जाती है । इसलिए महावीर ने सबसे पहला कदम मन उन्होंने इस सचाई को भली प्रकार हृदयंगम कर लिया को वश में करने के लिए उठाया। उन्होंने घर में कि सच्चा सूख ऐसा जीवन व्यतीत करने में है. जिसमें साधना की और समय आने पर सारी सम्पदा और छोटे-बड़े, ऊँच-नीच, धनी-निर्धन आदि का भेद-भाव न वैभव को त्याग, राजसत्ता को तिलांजलि दी और मन हो और व्यक्ति आत्मिक सम्पदा का उत्तरोत्तर विकास __ को नियंत्रित करके पूर्ण स्वतंत्रता अर्जित करने के लिए करे। कठोर साधना के मार्ग पर चल पड़े। वस्त्रों तक का त्याग, एकान्त-बास, खान-पान की उपेक्षा, ध्यान में हमारी सारी मनोभूमिका आज इस प्रकार की तल्लीनता आदि-आदि उनके प्रयास उसी दिशा के थे। हो गयी है कि हम पदार्थ को सुख का साधन मान मन पर जैसे-जैसे नियंत्रण होता गया. वैसे-वैसे प्रकाश बैठे हैं और उसी की उपासना कर रहे हैं। हम यह से जगमगाते एक नूतन लोक में वह प्रविष्ट होते गये । भूल गये हैं कि जो नाशवान है वह स्थायी सुख कभी दे नहीं सकता। महावीर ने कहा था, “यदि धनधान्य सब जानते हैं कि मन की सबसे अधिक उछलकूद से परिपूर्ण यह सारा लोक भी किसी एक मनुष्य को दे उस समय होती है, जब कि वह किसी भी प्रकार के दिया जाए, तो भी उसे सन्तोष होने का नहीं।" मद से आक्रान्त होता है। बीते युग की स्मृतियाँ और भविष्य की कल्पनाएँ मानवमन को सतत आलोड़ित ... "हाथ में दो रक होने पर भी जैसे उसके बुझ जाने करती रहती हैं । महाबीर ने उन स्मृतियों और कल्पपर सामने का मार्ग दिखाई नहीं देता, उसी तरह धन नाओं के दुष्चक्र से अपने मन को मुक्त करने का उपक्रम के असीम मोह में मूढ़ मनुष्य न्यायमार्ग को देखता हुआ किया और ज्यों-ज्यों उनसे उनका नाता टूटता गया, ३७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012001
Book TitleTirthankar Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Malav
PublisherJivaji Vishwavidyalaya Gwalior
Publication Year
Total Pages448
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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