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________________ आचार्यों ने अनेकान्तात्मक अर्थ के कथन को किन्तु लोक में और शास्त्र में प्रत्येक पद और स्याद्वाद कहा है। 'स्याद्वाद' के अनुसार वक्ता वस्तु के प्रत्येक वाक्य के साथ स्यात् पद का प्रयोग तो नहीं जिस धर्म को कहता है उससे इतर शेष धर्मों का सूचक देखा जाता । तब उसके बिना अनेकान्त की प्रतिपत्ति 'स्यात्' शब्द समस्त वाक्यों के साथ प्रकट या अप्रकट कैसे हो सकती है ? इसके उत्तर में आचार्य विद्यानन्द रूप से सम्बद्ध रहता है जो बतलाता है कि वस्तु में ने कहा है-स्यात् पद का प्रयोग नहीं होने पर भी केवल वही धर्म नहीं है जो कहा जा रहा है किन्तु उसको जाननेवाले उसे समझ लेते हैं। उसके सिवाय अन्य भी धर्म है। 'स्यात्' शब्द का अर्थ 'कथञ्चित्' या किसी 'अपेक्षा से' है । ___ कोई-कोई आधुनिक विद्वान शायद को स्यात् का स्थानापन्न समझते हैं किन्तु यह ठीक नहीं है। 'शायद' आचार्य समन्तभद्र ने कहा है शब्द तो सन्देह को व्यक्त करता है किन्तु 'स्यात्' शब्द सन्देहपरक नहीं है। वह केवल इस बात का सूचक या स्याद्वादः सर्वथैकान्तत्यागात किंवत्तचिद्विधिः। द्योतक है कि वक्ता विवक्षावश वस्तु के जिस धर्म को कहता है वस्तु में केवल वही एक धर्म नहीं है अन्य सप्तभंगनयापेक्षो हेयादेय विशेषकः ।। भी प्रतिपक्षी धर्म हैं। -आप्तमीमांसा-१०४। उपयोग अर्थात् 'कथञ्चित्' कथञ्चन आदि स्याद्वाद के यह स्याद्वाद या अपेक्षावाद न केवल दार्शनिक पर्याय हैं, स्याद्वाद को कहते हैं। यह स्याद्वाद अनेकान्त क्षेत्र में ही उपयोगी है किन्तु लोकव्यवहार भी उसके को विषय करके सात भंगो और नयों की अपेक्षा से बिना नहीं चलता । इसके लिये दो लौकिक दृष्टान्त स्वभाव और परभाव से सत् असत् आदि की व्यवस्था ऊपर दिये गये हैं। यह अनेकान्तवाद की देन है और का कथन करता है। एक वस्तु को विभिन्न दृष्टिकोणों से देखनेवाले विभिन्न व्यक्तियों में सामन्जस्य स्थापित करना इसका काम है। अतः वाक्य के साथ प्रयुक्त 'स्यात्' शब्द प्रकृत प्रत्येक व्यक्ति अपने ही दृष्टिकोण को उचित और दूसरों के अर्थ के धर्मों को पूर्ण रूप से सूचित करता है । इस तरह दृष्टिकोण को गलत मानता है । यदि वह अपने दृष्टिकोण अकलंक देव के अभिप्राय से 'स्यात्' शब्द अनेकान्त का की तरह दूसरे दृष्टिकोणों को भी सहानुभूतिपूर्वक अपनाये सूचक है और उनके व्याख्याकार आचार्य विद्यानन्द के तो पारस्परिक विवाद समाप्त हो जाता है। यद्यपि अभिप्राय से अनेकान्त का द्योतक भी है क्योंकि निपात अनेकान्तवाद और स्याद्वाद दार्शनिक क्षेत्र की देन है योतक भी होते हैं। यदि केवल 'स्यात' शब्द का प्रयोग और इनका उपयोग भी दार्शनिक क्षेत्र के विवादों को किया जाये तो अनेकान्त सामान्य की ही प्रतिपत्ति सुलझाने में ही हुआ है । आचार्य समन्तभद्र ने आप्तमीहोती है, अतः उसके साथ जीव आदि पद का प्रयोग मांसा में दो विरोधी एकान्तवादों में दोष दिखाकर यह किया जाता है यथा 'स्यात् जीव' अर्थात् कथंचित बताने का सफल प्रयत्न किया है कि यदि इनका समन्वय -au की अपेक्षा जीव है तथा पररूप की स्याद्वाद के द्वारा किया जाता है तो ये विरोधी वाटी अपेक्षा जीव नहीं है। स्यात् शब्द के बिना अनेकान्त अविरुद्ध हो जाते हैं । भावकान्त अभावैकान्त, नित्यकान्त अर्थ की प्रतिपत्ति नहीं हो सकती। अनित्यकान्त, भेदैकान्त अभेदैकान्त, अद्वेतकान्त द्वत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012001
Book TitleTirthankar Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Malav
PublisherJivaji Vishwavidyalaya Gwalior
Publication Year
Total Pages448
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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