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________________ तप 'भवकोडी-संचियं कम्म तवसा निजरिज्जई । जैसे तालाब का जल सूर्य-ताप से अथवा उलीचने से रिक्त हो जाता है, वैसे ही तप के द्वारा करोड़ों भवों के कर्म नष्ट हो जाते हैं। छन्दं निरोहेण उवेइ मोक्खं । इच्छाओं का निरोध करना तप है और उससे मोक्ष की प्राप्ति होती है। तीर्थरयणत्तय-संजुत्तो, जीवो वि हवेइ उत्तमं तित्थं । संसार' तरइ जदो, रयणत्तय-दिव्व-णावाए । (वास्तव में) रत्नत्रय से सम्पन्न जीव ही उत्तम तीर्थ (तट) है, क्योंकि वह रत्नत्रय रूपी दिव्य नौका द्वारा संसार-सागर से पार करता है। द्रव्य गुणाणमासओ दव्वं, एगदम्वस्सिया गुणा । लक्खणं पज्जवाणं तु, उमओ अस्सिया भवे ।। द्रव्य, गुणों का आश्रय या आधार है। जो एक द्रव्य के आश्रय रहते हैं, वे गुण हैं । पर्यायों का लक्षण द्रव्य या गुण दोनों के आश्रित रहना है। धम्मो अधम्मो आगासं, कालो पुग्गल जन्तवो । एस लोगो त्ति पण्णतो, जिणेहि वरद सिहि ॥ परमदर्शी जिनवरों ने लोक को धर्म, अधर्म, आकाश काल, पुदगल और जीव इस प्रकार छह द्रव्यात्मक कहा है। दुःखअण्णाणं परम दुक्खं । अज्ञान परम दुःख है। धर्म धम्मेण होदि पुज्जो। देवा वि तं नमस्सति, जस्स धमते सदा मणो चत्तारि धम्मदारा खंती, मुत्ती, अज्जवे, मद्दवे । धम्मो वत्थुसहावो, खमादिभावो य दस वहो धम्मो । रयणत्तयं च धम्मो, जीवाणं रक्खंण धम्मो । धर्म से प्राणी पूज्य होता है । देवता भी धर्मात्मा व्यक्ति को नमस्कार करते हैं। धर्म के चार द्वार हैंक्षमा, संतोष, सरलता और विनय । वस्तु का स्वभाव धर्म है। क्षमा आदि भावों की अपेक्षा से यह दस प्रकार का है। रत्नत्रय (सम्यक दर्शनसम्यक ज्ञान, सम्यक चारित्र) तथा जीवों की रक्षा करना धर्म है। १७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012001
Book TitleTirthankar Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Malav
PublisherJivaji Vishwavidyalaya Gwalior
Publication Year
Total Pages448
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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