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________________ उद्देसो पासगस्स नत्थि । आत्मज्ञानी को उपदेश की आवश्यकता नहीं। आचरण णाणे णाणुवदेसे अवट्टमाणो उ अण्णाणी जो ज्ञान प्राप्त कर तदनुसार आचरण नहीं करता, वह ज्ञानी भी वास्तव में अज्ञानी है। ___ धर्माचरण में प्रवृत्त रहो और पापोचरण से दूर रहो। धम्म आयरह सया पावे दूरेण परिहरह । आचार सीलगुणवज्जिदाणं निरत्थयं माणसं जम्म आचार (शील) हीन मनुष्य का जन्म निरर्थक है । आर्जव जो चितेइ ण वक, ण कुणदि वकं ण जंपदे वंकं । ण य गोवदि णियदोसं, अज्जव-धम्मो हवे तस्स ॥ जो कुटिल विचार नहीं रखता, कुटिल कार्य नहीं करता, कुटिल वचन नहीं बोलता और अपने दोषों को नहीं छिपाता, उसके आर्जव-धर्म होता है। उपभोग कदप्पं कुक्कुइयं, मोहरियं सजुयाहिगरणं च । उवभोगपरीभोगा-इरेयगयं चित्थ वज्जइ ॥ अनर्थदण्ड-विरत श्रावक को कन्दर्प (हास्यपूर्ण अशिष्ट वचन प्रयोग), कौत्कुच्य' (शारीरिक कुचेष्टा), मौखर्य (व्यर्थ बकवास), हिंसा के अधिकरणों का संयोजन तथा उपभोग-परिभोग की मर्यादा का अतिरेक नहीं करना चाहिये। कर्म सुचिण्णा कम्मा सुचिण्ण फला भवति । अच्छे कर्मों का फल अच्छा होता है। जहा कडं कम्म, तहासिभारे। जैसा किया हुआ कर्म है, वैसा ही उसका भोग है। रागो य दोसो विय कम्मवीयं, कम्मं च मोहप्पभवं वयति । रोग और द्वष ये दोनों कर्म के बीज हैं । कर्म मोह कम्मं च जाइमरणस्स मूलं, दुक्खं च जाइमरणं वयंति॥ से उत्पन्न होता है, ऐसा ज्ञानियों का कथन है । कर्म जन्म-मरण का मूल है और जन्म-मरण दुःख की परम्परा का कारण है। कषायउबसमेण हणे कोहं, माणं मछवया जिणे । माय चज्जवभावेण, लोभं संतोसओ जिणे ।। क्रोध को क्षमा से, मान को मदुता से, माया को सरलता से और लोभ को संतोष से जीतना चाहिये । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012001
Book TitleTirthankar Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Malav
PublisherJivaji Vishwavidyalaya Gwalior
Publication Year
Total Pages448
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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