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________________ कार्य करना चाहिये । वस्तुओं में मिलावट आदि नहीं करना चाहिये । जाली सिक्के या नोट आदि नहीं चलाना चाहिये। इच्छा, मुच्छा, तव्हा गेहि असंजमो, करवा। हत्य लहुत्तणं परहडं तेणिक्कं कूडया अदत्ते ।। परधन की इच्छा, मूर्छा, तृष्णा, गुप्ति, असंयम, कांक्षा, हस्तलाघव । (हाथ की सफाई) परधन हरण, कूट-तोल-माप और बिना दी हुई वस्तु लेना यह सब कृत्य चोरी हैं। चितमंतमचित्रं वा अप्पं वा जइ वा वह। दतसोहणमित्तंपि उग्गहं सि अजाइया ।। चाहे कोई सचेतन वस्तु हो या अचेतन-जड़ । अल्पमोली वस्तु हो या बहुमोली। बिना उसके स्वामी की आज्ञा लिये बिना नहीं लेना चाहिये, और तो क्या, दाँत कुरेदने के लिये एक तिनका भी बिना आज्ञा के न लेवें। अहिंसासव्वे पाणा पिआउया । सुहसाया दुक्खपडिकूला। अप्पियवहा, पियजीवणो । जीविडकामा । सवेसिं जीवियं पियं। नाइवाएज्ज कंचणं । सब प्राणियों को अपना जीवन प्यारा है। सुख सबको अच्छा लगता है और दुःख बुरा । वध सबको अप्रिय है और जीवन प्रिय । सब प्राणी जीना चाहते हैं। कुछ भी हो, सबको जीवन प्रिय है। अत: किसी भी प्राणी की हिंसा मत करो। एयं खु नाणिणो सारं जं न हिंसइ किंचण । अहिंसा समयं चेव एतावन्तं क्यिाणिया। ज्ञानी होने का सार यही है कि किसी भी प्राणी की हिंसा न करे । अहिंसामूलक समता ही धर्म का सार है, बस इतनी बात सदैव ध्यान में रखनी चाहिये। सव्वे जीवा वि इच्छंति, जीविडं न मरिज्जिउ । तम्हा पाणवहं घोरं, निग्गंथा वज्जयंति णं ।। सभी जीव जीना चाहते हैं, मरना नहीं। इसलिये प्राणवध को भयानक जानकर निग्रन्थ उसका वर्जन करते हैं। जहते न पिर्स दुक्खं, जाणिअ एमेव सव्वजीवाणं । संम्वायरमुवउत्तो, अत्तोवम्मेण कुणसु दयं ।। जैसे तुम्हें दुःख प्रिय नहीं हैं, वैसे ही सब जीवों को दुःख प्रिय नहीं है-ऐसा जानकर, पूर्ण आदर और सावधानीपूर्वक, आत्मौपम्य की दृष्टि से सब पर दया करो। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012001
Book TitleTirthankar Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Malav
PublisherJivaji Vishwavidyalaya Gwalior
Publication Year
Total Pages448
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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