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________________ भगवान महावीर के चरणों में हे ज्योतिपुंज जयवीर ! सत्य का ज्ञाता दृष्टा तू । हे महाप्राण ! मूर्च्छित जनमन का जीवन सृष्टा तू ॥ हे जिन ! प्रभात तू सघन तमस् से घिरती संसृति का। हे निविकार ! परिशोधक मानवता की संस्कृति का ॥ तने अपने अन्तरतम का मोया देव जगाया । तूने नर से नारायण तक अपने को पहुंचाया ।। सीमित नरतन में असीम की ज्ञान चेतना जागी । जन्म-जन्म की धूमित कलुषित मोह चेतना जागी । तेरी वाणी जग कल्याणी, प्रखर सत्य की धारा । खण्ड-खण्ड हो गयी दम्भ की, अन्धाग्रह की कारा ।। 'सत्य एक है' उस पर, तेरे मेरे का क्या अंकन । विश्व समन्वय कर देता है, तेरा यह उद्बोधन ।। तू उन अन्धों की आँख, भटकते ठोकर खाते जो । तू उन अबलों की लाठी, प्रताड़ित अश्रु वहाते जो ॥ मानवता के महामन्त्र का जो दाता, तू गुरुवर है । अस्तंगत जो कभी न होगा, ऐसा तू दिनकर है ।। जाति-पंथ-भेदों मे ऊपर, तू सवका सब तेरे । देशकाल वह कौन तुझे, जो मीमाओं में घेरे ।। तू अनन्त है, अजर अमर है, तेरा जीवन दर्शन । अखिल विश्व का तव चरणों में हो निर्वाणगामी वन्दन । --उपाध्याय अमरमुनि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012001
Book TitleTirthankar Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Malav
PublisherJivaji Vishwavidyalaya Gwalior
Publication Year
Total Pages448
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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