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________________ सम्पन्न हआ। ये दोनों मन्दिर वर्तमान में ग्वालियर में दूर स्थित बानोड़ी नामक ग्राम में इनका देहान्त उपलब्ध जैन मन्दिरों में कलात्मक दृष्टि से अद्वितीय हैं। हो गया। इन दिनों ग्वालियर में महादजी का अधिकार था। इनके कोई पुत्र न था अतः इनकी मृत्यु के पश्चात् उन्होंने उज्जैन को अपनी राजधानी के रूप में प्रयोग तुकोजीराव के 14 वर्षीय पुत्र आनंदराव इनके उत्तराकिया। यह बड़े प्रतापी शासक थे । इनका सारा जीवन धिकारी बनाये गये और उनका नाम दौलतराव रखा युद्धों में बीता । जिसमें इन्होंने उत्तर में एक बड़े भाग पर गया। कार्यमार सँभालने के एक वर्ष बाद ही इन्हें अधिकार कर लिया और यह कलकत्ते के समान एक निजाम से युद्ध करना पड़ा जिसमें ये विजयी हये और महत्वपूर्ण स्थान बन गया । दिल्ली के शासक भी इसके इन्हें करोड़ों रुपयों का लाभ हआ। इसके बाद ये अन्य आश्रय को उत्सुक रहते थे। वारेन हेस्टिग्ज इस बढ़ती राजाओं के सहयोग से कार्य चलाते रहे। किन्त इन्हीं शक्ति को सहन न कर सका और 3 अगस्त दिनों उत्तर भारत में फिर से अशान्ति फैल गई । अतः सन् 1760 को आधी रात के समय किले की पश्चिमी महाराजा दौलतराव पुना से उत्तर भारत की ओर आये। दीवार से चढ़-कर उसने अपनी फौजों को दुर्ग में रास्ते में इन्होंने इन्दौर के होल्कर राजा को परास्त कर प्रविष्ट करा दिया। दुर्ग का यह भाग अभी भी फिरंगी उनके राज्य को खूब लूटा । परन्तु अन्त में आपको अंग्रेजों पहाड़ी के नाम से प्रसिद्ध है। इस प्रकार दुर्ग अंग्रेजों के से युद्ध करना पड़ा। इस लड़ाई में दक्षिण भारत में हाथ में चला गया। 13 अक्टूबर सन् 1781 को पुनः स्थित अहमदनगर, और अशीदगढ़ के बड़े-बड़े किले इनके एक संधि में यह दुर्ग राणा लोकेन्द्र सिंह को मिला। हाथ से निकल गये । इधर उत्तर भारत में भी लार्ड लेक ने धावा बोल दिया। जिसमें दिल्ली, अलीगढ़, मथुरा लगभग इसी काल में ग्वालियर नगर में "जती जी और आगरा के इलाके इनके हाथ से जाते रहे । सन् के मन्दिर" के नाम से जाने वाले मन्दिर का निर्माण 1802 में ग्वालियर दुर्ग भी इनके हाथ से चला गया। हुआ। इससे प्रतीत होता है कि अशान्ति के इस वाता इनके अधिकांश सैनिक युद्ध में काम आ चुके थे। और वरण में भी मन्दिरों आदि का निर्माण कार्य होता रहता कोई रास्ता न देखकर इन्हें सन् 1805 में मजबूरी में था । अंग्रेजों से सन्धि करनी पड़ी जिसमें इन्हें ग्वालियर और सन 1783 में सिन्धिया शासकों ने अंग्रेजों की आसपास का क्षेत्र वापिस कर दिया गया। सन् 1812 मदद प्राप्त कर एक पहरेदार की सहायता से इस दुर्ग में में इन्होंने अपने पिताजी द्वारा स्थापित फौजी कैम्पवाले पुनः प्रवेश किया। राणा को मालूम पड़ते ही उसने मैदान लश्कर पर पुनः छावनी डाली। सन् 1812 में गुलामी से बचने के लिये आत्महत्या कर ली। इस बीच यहां नगर बसाकर इसी को ग्वालियर राज्य की महादजी ने लश्कर नामक फौजी छावनी के पास एक राजधानी बनाया तथा इसका नाम लश्कर ही रखा। बाड़ा कचहरी भी स्थापित की। जिसमें वे युद्धों से अवकाश निकालकर प्रशासन एवं न्याय का कार्य कहा जाता है कि इसी फौजी छावनी में एक जैन ओवरसियर भी कार्य करते थे। जब मुरार में छावनी देखते थे। स्थापित की गई तो वे वहाँ रहने लगे । इनकी मां बड़ी वे दक्षिण के राज्य को भी इसी राज्य में मिलाकर धार्मिक प्रवृत्ति की थीं तथा नित्यप्रति दर्शन करने के एक बड़ा हिन्दू राज्य स्थापित करना चाहते थे। इसी पश्चात् ही अन्न ग्रहण करती थीं । मुरार में मन्दिर न बीच 12 फरवरी सन 1794 ई. को पुना से 2 कोस होने के कारण उन्हें बड़ी परेशानी होती थी और दर्शन ३५७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012001
Book TitleTirthankar Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Malav
PublisherJivaji Vishwavidyalaya Gwalior
Publication Year
Total Pages448
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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