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________________ सिद्धक्षेत्र स्वर्णागिरी दतिया स्टेशन से तीन मील की दूरी पर स्थित स्वर्णागिरी ( सौनागिरी ) धार्मिक दृष्टि से सिद्धक्षेत्र माना जाता है । जिस ग्राम में यह क्षेत्र स्थित है वह सनावल कहलाता है, जो "श्रमणाचल" का अपभ्रंश रूप प्रतीत होता है, जिसका तात्पर्य श्रमण संस्कृति के प्रमुख अंचल से है । जिससे प्रतीत होता है कि यह क्षेत्र श्रमण दिगम्बर जैन साधुओं की प्राचीनतम तपोभूमि रही है । वर्तमान में यहाँ एक पहाड़ी बनी है जिस पर कुल 77 मन्दिर बने हुए हैं । नीचे के निकटवर्ती भू-भाग में भी सोलह भव्य मन्दिर बने हैं। इन सारे मन्दिरों में पहाड़ी के शीर्षस्थ स्थान पर बने तीर्थं कर चन्द्रप्रभू के मन्दिर का विशेष महत्व है। पहाड़ी की सर्वोच्च शिला पर उत्कीर्ण तीर्थकर चन्द्रप्रभू की प्रतिमा के चारों ओर भव्य मन्दिर बना है, जिसमें बाद में समय समय पर अन्य अनेकों तीर्थ कर प्रतिमाएँ भी विराजमान की गई हैं। तीर्थंकर चन्द्रप्रभू की प्रतिमा यहाँ की प्राचीनतम एवं इस मन्दिर की मूल नायक प्रतिमा है । जैन शास्त्रों के उल्लेख के अनुसार इस स्थल पर तीर्थंकर चन्द्रप्रभू स्वामी का समवशरण विहार करते समय ठहरा था, और उन्होंने काफी समय तक यहाँ उपदेश दिये थे । इस कारण इस स्थान का अत्याधिक धार्मिक महत्व है। इस घटना के प्रतीक स्वरूप ही यहाँ तीर्थंकर चन्द्रप्रभू की यह प्रतिमा उत्कीर्ण की गई यह मनोज्ञ प्रतिमा खड़गासन मुद्रा में है जिसकी ऊँचाई साढ़े सात फीट है। प्रतिमा के नीचे के भाग में उत्कीर्ण हिन्दी लेख में जो कि किसी प्राचीन लेख के आधार पर लिखा गया है, इस प्रतिमा और मन्दिर को सम्वत् 335 वि. में निर्मित दर्शाया है। इस लेख के अनुसार श्री श्रवणसेन कनकसेन ने इस मन्दिर का निर्माण सं. 335. वि. मे 定 Jain Education International करवाया तथा सं. 1883 में पुनः मथुरा के सेठ लक्ष्मीचन्द्रजी द्वारा इस मन्दिर का जीर्णोद्धार करवाया गया । इस जीर्णोद्वार के समय मूल शिलालेख चरणों के नीचे होने से दब गया पर सेठ लक्ष्मीचन्द्र जी ने इसका अनुवाद कराकर लगा दिया जिसे अविश्वसनीय मानने का कोई कारण नहीं है । जैन ग्रन्थों के उल्लेखों के अनुसार यह पर्वत जैन साधुओं की प्रमुख साधना स्थली रहा है, व लगभग साढ़े पाँच करोड़ साधुओं ने इसे अपनी सिद्धभूमि होने का गौरव प्रदान किया है । साधुओं के संघ के विहार के सम्बन्ध में उल्लेखनीय प्राचीनतम घटना सन् 258 ई. के लगगभ की बताई जाती है जब कि सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य के समय में महाकाल पड़ने पर जैन साधू संघ का एक अंश चलकर यहाँ आकर ठहरा। उन्होंने वहां जो अपना शिलालेख लगवाया वह अभी तक उपलब्ध है । सम्राट अशोक के शासन काल में एक उपशासक कुमारपाल की यहाँ नियुक्ति किये जाने का भी उल्लेख मिलता है। कुछ विद्वानों के मतानुसार अपने प्रारंभिक काल में जब सम्राट अशोक का झुकाव जैन धर्म की ओर था, उन दिनों सम्राट अशोक ने भी इस स्थान की बन्दना की थी । ३१६ पहाड़ से मोक्ष को प्राप्त साढ़े पाँच करोड़ मुनियों में सर्वाधिक प्रामाणिक ऐतिहासिक उल्लेख मुनि नंगअनंग कुमार का उपलब्ध होता है । इनके स्मारक के रूप में तीर्थ कर चन्द्रप्रभू के मन्दिर के निकट ही इनके चरण प्रतिष्ठापित हैं। पहाड़ी पर बने अन्य मन्दिर भी अत्याधिक भव्य है तथा उनमें विराजमान प्रतिमाओं में से अनेकों काफी प्राचीन हैं। व्यवस्थापन समिति द्वारा एक मन्दिर के वरामदों में पुरातत्व संग्रहालय के रूप में एक बीधिका बना दी गई है। इसमें भी सन् 300 ई. तक की अनेकों प्राचीन जैन प्रतिमायें खण्डित रूप में उपलब्ध हैं । इनके साथ ही समवशरण आदि के कुछ अवशेष भी इस संग्रहालय में हैं। पहाड़ी पर प्राकृतिक रूप से बने एक कुण्ड का आकार नारियल जैसा होने से For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012001
Book TitleTirthankar Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Malav
PublisherJivaji Vishwavidyalaya Gwalior
Publication Year
Total Pages448
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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