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________________ दम आदेश दिया है । किन्तु जो कन्याएं कुलीन होती हैं, वे परमण गहणायर वयणियभायरु । कभी भी ऐसा निर्लज्जता का कार्य नहीं कर सकतीं। हे जिणपयपयरुह णबिय सिरु ।। पिताजी, इस विषय में मैं वाद-विवाद नहीं करना चाहती । इसलिए, मेरी प्रार्थना ध्यानपूर्वक सुनें । पास० 7/11 आपका यह कार्य लोक-विरुद्ध होगा कि आपकी कन्या ____ अर्थात् “सम्पूर्ण देश उपद्रवों से रहित रहे, नरेश स्वयंवर करके अपने पति का निर्वाचन करे । अतः प्रजा का पालन करता हुआ आनन्दित रहे । जिन-शासन मुझसे कहे बिना ही आपकी इच्छा जहाँ हो, वहीं पर फले-फूले । निर्दोष मुनिगण विषय-वासना से दूर रहकर मेरा विवाह कर दें...... आनन्दित रहें। जो श्रावकगण जीव-अजीव आदि पदार्थों का श्रवण करते हैं, बे पापरहित होकर आनन्द से रहें।" भरत वाक्य रइधु-साहित्य की यह विशेषता है कि उसके प्रायः दूसरों के गुण ग्रहण करनेवाले, व्रत एवं नियमों सभी ग्रन्थों में विस्तृत भरत-वाक्य भी उपलब्ध होते का आचरण करनेवाले, मात्सर्य-मद से रहित एवं शास्त्र हैं । उनके मूल में कवि के अन्तस् का उज्ज्वल रूप ही में प्रवीण पण्डितगण चिरकाल तक आनन्द करें एवं सभी जन जिनेन्द्र के चरण-कमलों में नत-मस्तक रहैं।" प्रतिभाषित होता है। कवि-हृदय लोकमंगल की कामना से ओतप्रोत है । उसकी अभिलाषा है कि राजा कल्याण- रडध-साहित्य में प्रयक्त आधनिक भारतीय भाषाओं के मित्र बने, प्रजा उसे अपना पिता समझे, राजा भी उसे शब्द अपनी सन्तति के समान स्नेह करे । समस्त आधियाँ एवं व्याधियाँ नष्ट हों। ऋतुएँ समयानुसार सुफल दें। महाकवि रइधू यद्यपि मूलत: अपभ्रंश कवि हैं सर्वत्र सुख-सन्तोष एवं शान्ति का साम्राज्य हो । कवि किन्तु उनके साहित्य में ऐसी शब्दावलियाँ भी प्रयुक्त हैं कहता है : जो आधुनिक भारतीय भाषाओं की शब्दावलियों से , समकक्षता रखती हैं । उदाहरणस्वरूप यहाँ कुछ शब्दों णिखद्दउ णिवसउ सयलुदेसु । को प्रस्तुत किया जाता है :पयपालउ णंदउ पुणु णरेसु ॥ टोपी (जसहर० 1/5/7), ढोर (अप्प० 1/4/2), जिणसासणु णंदउ दोसमुक्कु । चोजु (आश्चर्य, सुक्को० 1/6/3), साला-साली (अप्प० मुणिगण णंदउ तहिं विसय-चुक्कु॥ 3/4/2), रसोइ (सुक्को० 4/5) गड्डी = गाड़ी, (घण्ण गंदहु सावययण गलियपाव । 2/7), गाली (अप्प० 1/8), जंगल (अप्प० 2/3/1), जेणिसुणहिँ जीवाजीव भाव ॥ पोटली (धण्ण. 2/6/4), वुक्कड=बकरा-धण्ण णंदउ महि णिरसिय असुहुकम्मु । 2/7/5), थट्ट =भीड़ सम्मइ० 1/17/4-खट्ट जो जीवदयावरु परमधम्मु ॥ =खाट-धण्ण० 2/14/8-सुत्त-सूतना=सोना, धण्ण० 3/15/3), पटवारी (धण्ण० 4/20/5), पत्ता वक्कल=बकला- छिलका-सुक्को० 2/5/12), ढिल्ल= ढीला-अप्प० 1/12/6), पुराना (अप्प० मच्छरमयहीणउँ सत्थपवीणउँ । 1/19/3), झूठे झगड़े (अप्प० 1/20/5), अंगोछा पंडिययणु णंदउ सुचिरु ॥ =धोती, (सम्मत्त० 5/10/13) मुग्गदालि=मूंग ३१६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012001
Book TitleTirthankar Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Malav
PublisherJivaji Vishwavidyalaya Gwalior
Publication Year
Total Pages448
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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