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________________ वैसे तो अगर हम यह सोचने लगे कि ये आसमान और लोक अनादि काल तक स्थायी बना रहता है। कितना ऊंचा होगा, तो उसकी सीमा की कोई कल्पना यदि विश्व की शक्ति शनैः शनैः अनन्त आकाश में फैल नहीं की जा सकती। हमारा मन कभी यह मानने को जाती तो एक दिन इस लोक का अस्तित्व ही मिट तैयार नहीं होगा कि कोई ऐसा स्थान भी है जिसके आगे जाता । इसी स्थायित्व को कायम रखने के लिये आकाश नहीं है। जैन शास्त्रों में भी विश्व को अनादि आइन्सटाइन ने कर्वेचर ऑफ स्पेस की कल्पना की। अनन्त बताया है और उसके दो विभाग कर दिये हैं- इस मान्यता के अनुसार आकाश के जिस भाग में जितना एक का नाम 'लोक' रखा है. जिसमें सूर्य, चन्द्रमा अधिक पुद्गल द्रव्य (मैटर) बिद्यमान रहता है उस स्थान तारे आदि सभी पदार्थ गभित हैं और इसका आयतन पर आकाश उतना ही अधिक गोल हो जाता है। इस 343 घनरज्जू है। आइन्सटाइन ने भी लोक का कारण ब्रह्माण्ड की सीमायें गोलाईदार हैं । शक्ति जब आयतन घन-मीलों में दिया है। एक मील लम्बा, एक ब्रह्माण्ड की गोल सीमाओं से टकराती है तब उसका मील चौडा और एक मील ऊंचे आकाश खण्ड को एक परावर्तन हो जाता है और वह ब्रह्माण्ड से बाहर नहीं घनमील कहते हैं। इसी प्रकार एक रज्जु लम्बी, एक निकल पाती । इस प्रकार ब्रह्माण्ड की शक्ति अक्षुण्ण रज्जु चौड़ी और एक रज्जु ऊचे आकाश खण्ड को एक बनी रहती है और इस तरह वह अनन्त काल तक घनरज्जु कहते हैं आइन्सटाइन ने ब्रह्माण्ड का आयतन चलती रहती है।। 1037x1063 घनमील वताया है अर्थात् 1037 लिवकर उसके आगे 63 बिन्दु लगाने से जो संख्या पुद्गल की विद्यमानता से आकाश का गोल हो बनेगी (कुल अंकों की संख्या 67) उतने घनमील विश्व जतन धनमोल विश्व जाना एक ऐसे लोहे की गोली है जिसे निगलना आसान का आयतन है। इसको 343 के साथ समीकरण करने नहीं। आइन्सटाइन ने इस ब्रह्माण्ड को अनन्त काल पर एक रज्जु 15 हजार शंख मील के बराबर तक स्थायी रूप देने के लिये ऐसी अनूठी कल्पना की। होता है। दूसरी ओर जैनाचार्यों ने इस मसले को यू कहकर ।। हल कर दिया कि जिस माध्यम में होकर वस्तुओं, ब्रह्माण्ड के दूसरे भाग को 'अलोक' कहा गया है। जीवों और शक्ति का गमन होता है, लोक से परे वह लोक से परे सीमा के बन्धनों से रहित यह अलोकाकाश हैं ही नहीं। यह बड़ी युत्तिसंगत और बुद्धिगम्य बात है। लोक को चारों ओर से घेरे हये है। यहां आकाश के जिस प्रकार जल के अभाव में कोई मछली तालाब की सिवाय जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और काल किसी सीमा से बाहर नहीं जा सकती, उसी प्रकार लोक से द्रव्य का अस्तित्व नहीं है। अलोक में शक्ति का गमन ईथर के अभाव के कारण नहीं हो सकता । जैन शास्त्रों का धर्म द्रव्य मैटर या ईथर लोक और अलोक के बीच की सीमा का निर्धारण के अभाव के कारण नहीं हो सकता। जैन शास्त्रों का करनेवाला धर्म द्रव्य अर्थात 'ईथर' है। चूकि लोक धर्म दृध्य मैटर या एनर्जी नहीं है, किन्त साइन्सवाले की सीमा से परे ईथर का अभाव है इस कारण लोक ईथर को एक सूक्ष्म पोद्गलिक माध्यम मानते आ में विद्यमान कोई भी जीव या पदार्थ अपने सूक्ष्म-से- रहे हैं और अनेकानेक प्रयोगों द्वारा उसके पौद्गलिक सक्ष्म रूप में अर्थात एनर्जी के रूप में भी लोक की अस्तित्व को सिद्ध करने की चेष्टा कर रहे हैं, किन्तु सोमा से बाहर नहीं जा सकता । इसका अनिवार्य वे आज तक इस दिशा में सफल नहीं हो पाये हैं। परिणाम यह होता है कि विश्व के समस्त पदार्थ और हमारी दृष्टि से इसका एकमात्र कारण यह है कि ईथर उसकी सम्पूर्ण शक्ति लोक के बाहर नहीं बिखर सकती अरूपी पदार्थ है । कहीं तो वैज्ञानिकों ने ईथर को हवा २७८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012001
Book TitleTirthankar Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Malav
PublisherJivaji Vishwavidyalaya Gwalior
Publication Year
Total Pages448
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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