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________________ मानते हैं। वे दशरूपककार द्वारा दिये गये अमात्य के प्रमाचन्द्राचार्य के प्रभावक चरित से ज्ञात होता है 'धीरप्रशान्त' विशेषण को ठीक नहीं मानते। कि वाग्भट ने अपने धन से जैन-मन्दिर का निर्माण कराया था, जिसमें श्रीमहावीर की प्रतिष्ठा संवत् ग्रन्थकारों ने अनेक स्थलों पर धनञ्जय के मत 1 179 में की गयी थीका उल्लेख अन्ये, केचित आदि के द्वारा किया है। अथास्ति बाहडो नाम धनवान धामिकाग्रणीः । नाट्यदर्पणकारों ने मम्मट के भी मत का खण्डन गरूपादान् प्रणम्याथ चक्र विज्ञापनामसौ ॥ किया है मम्मट ने अङ्ग-रस के अतिविस्तार को रस- आदिश्यतामतिश्लाध्यं कृत्यं यत्र धनं व्यये । दोष माना है ओर हयग्रीववध के हयग्रीव-वर्णन को प्रभूराहालये जैने द्रव्यस्य सफलो व्ययः ।। उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया है ।' नाट्यदर्पण के शतकादशके साष्टसप्ततौ विक्रमार्कतः । आचार्यों की मान्यता है कि यह वृत्त (कथा) का दोष वत्सराणां व्यतिक्रान्ते श्रीमुनिचन्द्रसूरयः ॥ है, रस का दोष नहीं।' आराधनाविधिश्रीष्ठं कृत्वा प्रायोपवेशनम् । शमपीयुषकल्लोलप्लतास्ते त्रिदिवं ययुः । रामचन्द्र और गुणचन्द्र के मौलिक विचार अनेक वत्सरे तत्र चैकेन पूर्णे श्रीदेवसूरिभिः । स्थानों पर उपलब्ध होते हैं। उनका परीक्षण और श्रीवीरस्य प्रतिष्ठां स बाहडोऽकारयन्मुदा ।। मूल्याङ्कन स्वतन्त्र निबन्ध का विषय हैं। वाग्भट का निवासस्थान अणहिल्लपट्टन बतलाया जैन-आचार्य वाग्भट (प्रथम) जयसिंह सिद्धराज जाता है । वाग्भटालङ्कार के अधोलिखित श्लोक से के मन्त्री थे। इनका प्राकृत-नाम बाहड था और इनके वाग्भट की जैन-धर्म के प्रति श्रद्धा और आस्था प्रकट पिता का नाम सोम था होती हैबम्भण्डसुतिसम्पुडमुक्तिअमणिणो पहासमूहव्व । श्रियं दिशतु बो देवः श्रीनाभेयजिनः सदा । सिरि बाहड त्ति तणओ आसि बहो तस्स सोमस्स ॥ मोक्षमार्ग सतां ब्र ते यदागमपदावली ॥'10 6. 'सचिवो राज्यचिन्तकः । अयं वणिरविप्रयोर्मध्यपात्यपि धीरोदात्त--धीरप्रशान्तौ प्रकरणे नेतारौ भवत इति प्रतिपादनार्थ पृथगुपात्तः । यस्त्वमात्य नेतारम्यूपगम्य धीरप्रशान्तनायकमिति 'प्रतरणं' विशेषयति, स वृद्धसम्प्रदायवन्ध्यः ।' नाट्यदर्पण 211 की विवृति । 7. काव्यप्रकाश (झलकीकर की टीका से समन्वित, 1950 ई.), पृ. 441 । 8. 'केचिदत्र हयग्रीववधे हयग्रीववर्णनमुदाहरन्ति ।स पुनर्वृत्तदोषो वृत्तनायकस्याल्पवर्णनात् । तत्र हि वीरो ___रसः । स विशेषतो वध्यस्य शौर्यविभूत्यतिशयवर्णनेन भूष्यत इति । नाट्यदर्पण 3123 की विवृति । 9. वाग्भटालङ्कार (चौ. सं.), 41147 10. वही 1।1। इस पर देखिए-सिंहदेवर्गाण की टीका, जिसमें उन्होंने अतिशयचतुष्टय तथा रत्नत्रय का निर्देश किया है। २५१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012001
Book TitleTirthankar Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Malav
PublisherJivaji Vishwavidyalaya Gwalior
Publication Year
Total Pages448
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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