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________________ प्रसंग सर्वाधिक कारुणिक और विदग्ध है। विभीषण दीवउ होइ सहावें कालउ । सीता के पवित्र चरित्र की निर्दोषिता सिद्ध करने के वट्टि-सिहएं मण्डिज्जइ आलउ ।। लिए अपनी सारी शक्ति लगा देते हैं। लंका से त्रिजटा णर णारिहि एवड्डउ अन्नउ । आकर गवाही देती है। अंत में सीता की अग्नि परीक्षा मरणे विवेल्लिण मेल्लिय तरुवरु ।। होती है । दूसरे दिन जब सीता को सबेरे सभा में अंत में सीता तपश्चरण के लिए प्रस्थित हो जाती लाकर आसन पर बिठाया जाता है, तब सीता वर है। स्वयंभू ने सीता के चरित्र को सम्वेदनशीलता से आसन पर संस्थित ऐसी शोभायमान होती है जैसे जिन आपूर्ण कर दिया है। वह पाठकों की दया, सम्वेदना आसन पर शासन-देवता तथा सहानुभूति की अधिकारिणी बन जाती है । सीय पइट्ट णिवट्ठ वरासणे । ___ स्वयंभू के पूर्व विमल सूरि, रविषेण तथा आचार्य सासण देवए जंज़िण-सासणे ॥ हेमचन्द्र ने सीता-त्याग के प्रसंग का सम्यक प्रतिपादन किया है। प्रखर तथा स्पष्टवादिनी सीता का, शंकालु तथा नारी-चरित्र की भर्त्सना करने वाले श्री राम को कितना 'पउम चरियं' के पूर्व 92 94 में सीता-त्याग का आत्माभिमानपूर्ण एवं सतेज उत्तर है कि गंगा जल विस्तृत वर्णन मिलता है। लका से लौट आने के समय गॅदला होता है, फिर भी सब उसमें स्नान करते हैं। भी जनता के अपवाद की चर्चा मिलती है। श्री राम चन्द्रमा सकलंक है, लेकिन उसकी प्रभा निर्मल, मेघ स्वतः गर्भवती सीता को वन में विभिन्न जैन चैत्यालय काला होता है परन्तु उसमें निवास करनेवाली दिखला रहे थे कि अयोध्या के अनेक नागरिक उनके विद्युत्छटा उज्ज्वल । पाषाण अपूज्य होता है, यह सर्व- पास आए और अभयदान पाकर उन्होंने अपने आगमन विदित है परन्तु उससे निर्मित प्रतिमा में चन्दन का का निमित्त निरूपित किया । उनसे श्री राम को सीता लेप लगाते हैं । कमल पंक से उत्पन्न होता है लेकिन का अपवाद विदित होता है और वे अपने सेनापति उसकी माला जिनवर पर चढ़ती है, दीपक स्वभाव से कृतांतवदन को जिन-मंदिर दिखलाने के बहाने सीता काला होता है लेकिन उसकी शिखा भवन को आलो- को गंगा पार के वन में छोड़ आने का आदेश देते हैं। कित करती है। नर तथा नारी में यही अन्तर है जो संयोग से वन में पुण्डरीकपुर के नरेश बज्रजंघ ने सीता वृक्ष और बेलि में । बेलि सूख जाने पर भी वृक्ष को । का करुण क्रन्दन सुन लिया जिस पर वह उन्हें अपने नहीं छोड़ती भवन में ले आया और उसके यहाँ सीता के दो पुत्र साणुण केण वि जणेण गणिज्जइ । गंगा गइहिं तं जि ण हाइज्जइ ॥ ससि क्लंक तहिं जि पह णिम्मल । कालउ मेह तहिं जें तणि उज्जल ।। उवलु अपुइजु ण केण वि छिप्पइ । तहि जि पडिप चन्दणेण विलिप्पइ ।। धुज्जइ पाउ पंकु जइ लग्गइ । कमल-भाल पुणु जिणही बलग्गइ । 'पदमचरित' के छियान्नवे पर्व में सीता के ग्रहण स्वरूप दुष्परिणामों में प्रजा का मर्यादाविहीन स्वरूप और नारियों का हरण, प्रत्यावर्तन तथा उनकी स्वीकृति बतलाई गयी है। _ 'योगशास्त्र' (द्वादश शताब्दी) में सीता निर्वासन के तदन्तर एक घटना का वृत्तांत मिलता है । तदनुसार श्री राम अपनी भार्या के अन्वेषण में बन गये हुए थे २४४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012001
Book TitleTirthankar Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Malav
PublisherJivaji Vishwavidyalaya Gwalior
Publication Year
Total Pages448
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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