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________________ बयाना में संवत 1400 तथा 1404 की मूत्तियाँ हैं इन्होंने संवत 1502 में बैशाख सुदी 3 के दिन पावजिसमें भट्टारक प्रभाचन्द्र एवं उनके शिष्य पद्मनन्दि नाथ प्रतिमा की स्थापना करवायी थी । इसके अगले दोनों का उल्लेख किया गया है। भट्टारक पद्मनन्दि वर्ष संवत् 1503 में प्रतिष्ठापित चौबीसी की एक (संवत् 1385 से 1450) को गुजरात में प्रतिष्ठा प्रतिमा जयपुर के एक मन्दिर में विराजमान की। महोत्सव के संचालन के लिए ही भट्टारक पद पर संवत 1504 में नगर (राजस्थान) में आयोजित स्थापित किया गया। कविवर वख्तराम शाह ने अपने प्रतिष्ठा महोत्सव में भाग लिया था । इन्हीं भट्टारक बुद्धि विलास में निम्न प्रकार व्यक्त किया है जिनचन्द्र के शिष्य भट्टारक प्रभाचन्द्र द्वितीय ने कितने ही मन्दिरों के निर्माण एवं प्रतिष्ठा महोत्सवों को सवत् तेरह सौ पिचिहतस्यौ जानि वै अपना आशीर्वाद दिया था। मंडलाचार्य धर्मचन्द जो भये भट्टारक प्रभाचन्द्र गुनखानि वै । भट्टारक प्रभाचन्द्र के प्रमुख शिष्य थे, ने, आवां तिनको आचारिज इक हो गुजरात में, (राजस्थान) में संवत 1583 में जिस विशाल प्रतिष्ठा तहाँ सवै पंचनि मिलि ठानी बात में ।। समारोह का नेतृत्व किया था वह इतिहास में अपना की इक प्रतिष्ठा तो सुभ काज हवं विशेष स्थान रखती है । धर्मचन्द्र ने भट्टारक जिनचन्द्र करन लगे विधिवत सब ताकी साज वै का निम्न शब्दों में स्मरण किया हैभट्टारक बुलवाये तो पहुंचे नहीं, तवं सबै पंचनि मिलि यह ठानी सही । तत्पहस्थ-श्रुताधारी प्रभाचन्द्र त्रिया निधिः। सूरि मंच वाहि आचारिज को दियो। दीक्षितो पो लसत्कीतिः प्रचण्ड पण्डिता गणी ॥ पद्मनन्दि भट्टारक नाम सु यह कियौ ॥ सोमकीति अपने समय के लोकप्रिय भट्टारक थे। भट्टारक पद्मनन्दि द्वारा प्रतिष्ठित सैंकड़ों मूत्तियाँ संवत 1527, 1532, 1536, एवं 1540 में इनके राजस्थान में मिलती हैं । सांगानेर के संघीजी के द्वारा प्रतिष्ठित कितनी ही मूर्तियां राजस्थान के विभिन्न मन्दिर में इन्हीं के द्वारा प्रतिष्ठापित शान्तिनाथ मन्दिरों में उपलब्ध होती हैं । अपने समय के मुसलस्वामी की मूत्ति है जिसकी प्रतिष्ठा संवत् 1464 में मान शासकों से इनका अच्छा सम्बन्ध था। 16वीं हई थी। इसी संवत की प्रतिष्ठित मूर्ति पार्श्वनाथ शताब्दी में भट्टारक ज्ञानभूषण भट्टारक सकलकीति दिगम्बर जैन मन्दिर में टोंक में विराजमान है । भट्टा- परम्परा में अत्याधिक प्रभावशाली भट्टारक हुए रक सकल कीति ने अपने जीवन में 14 बिम्ब प्रति- जिन्होंने प्राचीन मन्दिरों का जीर्णोद्धार, नवीन मन्दिर ष्ठाओं का संचालन किया था । इनके द्वारा संवत् निर्माण, पंच कल्याणक प्रतिष्ठाएँ सांस्कृतिक समारोह, 1490, 1492 एवं 1497 में प्रतिष्ठापित मूत्तियाँ उत्सव एवं मेलों आदि के आयोजनों को प्रोत्साहित उदयपुर, डूगरपुर एवं सागवाड़ा के जैन मन्दिरों में किया । इनके द्वारा संवत् 1531, 1534, 1535, मिलती हैं। संवत 1548 में जीवराज पापड़ीवाल ने 1540, 1543, 1544, 1545, 1552, 1557 व जो विशाल प्रतिष्ठा महोत्सव सम्पन्न कराया था उस 1560 तथा 1561, में प्रतिष्ठापित सैंकड़ों मूर्तियाँ महोत्सव के प्रधान थे भट्टारक जिनचन्द्र । सर्वप्रथम बागड़ प्रदेश के नगरों में उपलब्ध होती हैं। 1. मूर्ति लेख संग्रह भाग 1 पृष्ठ 68 एवं भाग 2 पृष्ठ सं. 305 (महाबीर भवन जयपुर द्वारा संग्रहित)। 2. वीर शासन के प्रभावक आचार्य--पृष्ठ सं. 135 २३३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012001
Book TitleTirthankar Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Malav
PublisherJivaji Vishwavidyalaya Gwalior
Publication Year
Total Pages448
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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