SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 262
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ने 2 गुरू के इस महत्व को समझकर ही साधक कवियों गुरू के सत्संग को प्राप्त करने की भावना व्यक्त की है । परमात्मा से साक्षात्कार कराने वाला ही सदगुरू है । सत्संग का प्रभाव ऐसा होता है कि वह मजीठ के समान दूसरों को अपने रंग में रंग लेता है । 30 काग भी हंस बन जाता है। 7 रैदास के जन्म-जन्म के पाश कट जाते हैं " मीरा सत्संग पाकर ही हरि चर्चा करना चाहती हैं । " सत्संग से दुष्ट भी वैसे ही सुधर जाते हैं जैसे पारस के स्पर्श से कुधातु लोहा भी सुवर्ण बन जाता है । 10 इसलिए सूर दुष्ट जनों की संगति से दूर रहने के लिए प्रेरित करते हैं । 42 मध्यकालीन हिन्दी जैन कवियों ने भी सत्संग का ऐसा ही महत्व दिलाया है। बनारसीदास ने तुलसी के समान सत्संगति के लाभ गिनाये हैं 35. भाई कोई सतगुरू संत कहावे, मैनन अलख लखावे" कबीर, भक्ति काव्य में रहस्यवाद, पृ. 146. 36. दरिया संगत साधु की, सहजे पलटें अंग । जैसे संग मजीठ के कपड़ा होय सुरंग ॥ 37. सहजो संगत साध की काग हंस हो जाय। 38. कह रैदास मिले निजदास, जनम जनम के काटे पास-रैदास वानी, पृ. 32. 39. तज कुसंग सतसंग बैठ नित, हरि चर्चा सुन लीजो-संतवाणी संग्रह, भाग 2, पृ. 77. 40. जलचर थलचर नभचर नाना जे जड़ चेतन जीव जहाना । मीत कीरति गति भूमि मिलाई, जब जेहि जसंन जहाँ जेहि पाई। जो जानव सतसंग प्रभाऊ, लोकहुँ वेद न आन उपाऊ । बिनु सतसंग विवेक न होई, राम कृपा बिनु सुलभ न सोई । सतसंगति गुद मंगल मूला, सोइ फल सिधि सब साधन फूला ॥ सठ सुधर 41. तजी मन हरि विमुखन को संग | कुमति निकंद होय महा मोह मंद होय; जगभर्ग सुयश विवेक जगै हियसों । नीति को दिठाव होय विनैको बढ़ाव होय; उपजे उछाह ज्यों प्रधान पद लिये सों ॥ धर्म को प्रकाश होय दुर्गंति को नाश होय, बरते समाधि ज्यों विष पियेसों । तोष परि पूर होय, दोष दृष्टि दूर होय, एते गुन होहि सत-संगति के कियेसौ ॥ रस 42 Jain Education International 1 दरिया 8 संत वाणी संग्रह भाग 1, पृ 129. सहजोबाई, वही पृ. 158 सतसंगति पाई, पारस परस कुधात सुहाई । तुलसीदास रामचरितमानस, बालकाण्ड 2-5. जिनके संग कुमति उपजत है परत भजन में भंग । कहा होत पय पान कराये विष नहि तजत भुजंग । काहि कहा कपूर चुगाए स्वान न्हवाए गंग। सूरदास खल कारी कामरि, चढ़े न दूजो रंग ॥ सूरसागर, पृ. 176. 42. बनारसी विलास, भाषासूक्त मुक्तावली, पृ. 50. २२८ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012001
Book TitleTirthankar Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Malav
PublisherJivaji Vishwavidyalaya Gwalior
Publication Year
Total Pages448
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy