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________________ प्राचीनतम जैन साहित्य कर बाकी में रचियता का नाम नहीं मिलता उनमें से रचियता के नामवाले ग्रन्थों में सबसे पहला सूत्र है भगवान महावीर के पहले के तीर्थ करों के दशवकाल्पिक, जिनमें जैन मुनियों का आधार संक्षेप में मुनियों का जो विवरण आगमों में प्राप्त है, उससे वणित है। इस सूत्र के रचियता राय्यंभव सूरि महामालूम होता है कि 'पूर्वो' का ज्ञान उस परम्परा में चालू वीर निर्वाण के 98 वर्ष में स्वर्गस्थ 5 वें पक्षधर हुए था। आगे चलकर उनको 14 पूर्वो में विभाजित कर र हैं। इसके बाद आचार्य भद्रबाहु श्रुतकेवली ने वृहददिया मालूम देता है। अतः भगवान महावीर में समय कल्प, ब्यवहार और दशाथ त स्कन्ध नामक उछेद सूत्रों और उसके कई शताब्दियों तक 14 पूर्वो का ज्ञान की रचना की। 10 आगमों की नियुक्तियाँ रूप प्राचीन प्रचलित रहा। 'क्रमशः' उसमें क्षीणता होती गई और , आत विटर टीकाएँ भी भद्रबाहु रचित हैं । पर आधुकरीब 2 हजार वर्षों से 14 पूर्वो के ज्ञान की वह निक विद्वानों की राय में उनके कर्ता द्वितीय भद्रबाह विशिष्ट परम्परा लुप्त सी-हो गयी। पीछे हुए हैं । इसके बाद स्यामाचार्य ने पत्रवणा सूत्र बनाया। इस तरह समय-समय पर अन्य कई आचार्यों भगवान महावीर ने जो 30 वर्ष तक अनेक और विद्वानों ने ग्रंथ बनाकर जैन साहित्य की अभिस्थानों में विचरते हुए धर्मोपदेश दिया, उसे अनेक वृद्धि की। प्रवान गौतम आदि गणधरों ने सुत्र रूप में निबद्ध कर । दिया। वह उपदेश 12 अंग सूत्रों में विभक्त कर दिया संस्कृत में जैन साहित्य - गया जिसे 'द्वादशांग गणि-पिटक' कहा जाता है। इनमें भगवान महावीर ने तत्कालीन लोकभाषा अर्द्धसे 12वां दृष्टिबाद अंग सत्र जो बहत बड़ा और विशिष्ट माथी में पटेडा दिया था बहुत बड़ा और विशिष्ट मागधी में उपदेश दिया था और उसी परम्परा को और न ज्ञान का स्तोत्र था। पर वह तो लुप्त हो चुका है। जैनाचार्यों ने भी 500 वर्षों तक तो बराबर निभाया । बाकी "अंग सूत्र करीब हजार वर्ष तक मौखिक रूप अतः उस समय तक का समस्त जैन साहित्य प्राकृत । से प्रचलित रहे, इसलिए उनका भी बहुत-सा अंश भाषा में ही रचित है । इसके बाद संस्कृत के बढ़ते विस्मत हो गया। वीर निर्वाण संवत_980 में देवधि हए प्रचार से जैन विद्वान भी प्रभावित हुए और गणि क्षमाश्रमण ने सौराष्ट्र की वल्लभी नगरी में उस उन्होंने प्राकृत के साथ-साथ संस्कृत में भी रचना करना समय तक जो अंग मौखिक रूप से प्राप्त थे उनको प्रारम्भ कर दिया । उपलब्ध जैन साहित्य में सबसे लिपिबद्ध कर दिया । अतः प्राचीनतम और जैन पहला संस्कृत ग्रंथ आचार्य उमास्वाति रचित 'त्वार्थ साहित्य में रूप के वे 11 अंग और उनके उपांग तथा । गि तथा सूत्र माना जाता है, जो विक्रम की दूसरी तीसरी शताब्दी उनके आधार पर बने हुए जो भी आगम आज प्राप्त की रचना है। इसमें छोटे-छोटे सूत्रों के रूप में जैन हैं उन्हें प्राचीनतम जैन साहित्य माना जाता है। सिद्धान्तों का बहत खुबी से संकलन कर दिया गया है। दिगम्बर सम्प्रदाय में तो ये अंग सूत्रादि लुप्त हो गये यह 10 अध्यायों में विभक्त है। श्वेताम्बर और दिगमाना जाता है, पर श्वेताम्बर सम्प्रदाय में वे ही आगम म्बर दोनों सम्प्रदाय इसे समान रूप से मान्य करते ग्रंथ प्राप्त और मान्य हैं। हैं, और दोनों सम्प्रदायवालों की इस पर सही टीकाएँ प्राप्त हैं । श्वेताम्बर मान्यता के अनुसार तो तत्थ्यार्थका प्राचीनतम जैन साहित्य सुत्र की भाष्य तो स्वय उमास्वाति ने ही रची है। भगवान महावीर के बाद कई जैनाचार्यों ने बहुत- सुत्र ग्रन्थों की परम्परा का यह महत्वपूर्ण संस्कृत से सूत्र ग्रंथ बनाये, पर उन सूत्रों में से 2-4 को छोड़- जैन ग्रन्थ है। २१८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012001
Book TitleTirthankar Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Malav
PublisherJivaji Vishwavidyalaya Gwalior
Publication Year
Total Pages448
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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