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________________ अभिमान को प्रकट करने के उद्देश्य से झोल दे दिया इन्द्र वरुण, काली आदि यक्ष-यक्षिणी तथा अन्य गया है। दो चश्म आकार के खड़े हए जैन मुनियों की रूपान्तरों में जैन कला में भी प्राप्त होते हैं। पश्चातठोड़ी में त्रिशल की भाँति तीन रेखाएँ और नासिका, वर्ती काल में जैन कला हिन्दू कला के साथ एकाकार भाल की नोक की तरह अंकित है। भवें और नयनों करती प्रतीत होती है। एक मुख्य असमानता जो जैन का फैलाव समरूप है। एक चश्म तथा डेढ़ चश्म चेहरों और हिन्दू कला के मध्य सदेव विद्यमान रही वह थी में नासिका शुकचंचु की भांति नुकीली और अनुपात से हिन्दू कला में नारी चित्रों तथा अति थ्रांगारिक चित्रों अधिक लम्बी हो गयी है। नेत्र उठे हए तथा बाहर की के अंकन के सम्बन्ध में । हिन्दू कला स्थूल मांसलता ओर उभरे हुए हैं। उनकी लम्बाई कर्णभाग को छूती की ओर अग्रसर हो, राग-रागिनी, नख-शिख तथा है , वस्तुत: नेत्रों और नासिका के चित्रण में जैन कला- बारहमासा आदि विषयों में संलग्न होती गयी तब भी कारों की निपुणता की तुलना नहीं है।"" जैन कला में अपनी परम्परागत धार्मिक निष्ठा स्थिर रही। यही कारण है कि ज्यों-ज्यों हिन्दू कला राजइस प्रकार जैन चित्रकला की परम्परा के प्रसादों में सिमटती गई और विलासितामयी जीवन अन्तर्गत जो कार्य हुआ उसने भारतीय चित्रकला के के चित्रण में लगती गई, त्यों-त्यों जैन चित्रकला की विकास का मार्ग प्रशस्त किया । चित्रकला के क्षेत्र में निहित होती गई। राजपूत और मुगल शैलियों के पूर्व भी महत्वपूर्ण कार्य इस देश में जैन चित्रकला के माध्यम से हुआ। बौद्ध कला भी जैन कला से कई स्थानों पर सामंभारतीय चित्रकला को जैन चित्रकला ने ऐसी अनुपम जस्य करती प्रतीत होती है। जैन कला में जिस प्रकार सचित्र कृतियां दी हैं जो भावाभिव्यक्ति, सौन्दर्य बोध. कथाओं को कई स्थानों पर आधार बनाया गया है, रंग योजना, वर्ण-आकार-सज्जा के अदभत सामंजस्य उसी प्रकार बुद्धकला का भी मुख्य आधार जातक के कारण सजीव बन पड़ी हैं । इसने चित्रकला की कथाएँ हैं। पन्द्रहवीं शती के पूर्व जैन एवं बौद्ध कलाओं अगली परम्पराओं राजपूत और मुगल शैलियों को की ही कृतियाँ उपलब्ध हैं । जैन कला ने बौद्ध कला नवीन प्रवृत्तियाँ तथा प्रगतिशील तत्व दिये हैं। की अलंकरण प्रवृत्ति से सामंजस्य स्थापित किया है । एक मुख्य अन्तर जो इन दोनों में पाया जाता है वह जैन चित्रकला ने अपने से उत्तरकालीन सभी यह कि बौद्ध कला भित्ति चित्रों पर अधिक केन्द्रित शैलियों पर अपनी गहरी छाप छोड़ी है। हिन्दू रही जबकि जैन कला में भित्ति चित्रों के पश्चात् राजपूत कला जैन चित्रशैली से अत्यधिक प्रभावित ताड़पत्रों तथा कागज पर चित्रांकन को प्रमुखता दी हुई। भारतीय चित्र शैलियों में बेलबूटों की बनावट गई और वह ग्रन्थ चित्रों की ओर अधिक आकर्षित की जन्मदात्री सर्वप्रथम जैन कला ही रही । जैन हई । बौद्ध कला ने राज्य संरक्षण प्राप्त कर तथा चित्रकला हिन्दू चित्रकला शैलियों के अति निकट रही विलासिता पूर्ण, श्रगारिक चित्रों तथा नारी चित्रों का है। विषय वस्तु के रूप में भी जन कला में स्वयंभू अंकन अपने क्षेत्र को और व्यापक बनाते हुए जहाँ राम और नेमिनाथ हिन्दू कला के राम और कृष्ण के अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में अपना विकास किया वहाँ जैन समान एवं समकालीन हैं । हिन्दू शैलियों की सरस्वती, कला ने सिद्धांतों के मूल्य पर कभी परिस्थिति से 4. भारतीय चित्रकला--वाचस्पति गैरोला, पृष्ठ 1421 १६७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012001
Book TitleTirthankar Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Malav
PublisherJivaji Vishwavidyalaya Gwalior
Publication Year
Total Pages448
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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