SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 207
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ यशोधरा में कवि मैथिलीशरण गुप्त ने भी गीत की परिभाषा कही है - "अधर पर मुस्कराहट है, नैनों से नीर बहता है, हृदय की हूक हँस पड़ती, जिसे जग गीत कहता है ।" जैन आगमों में यह कहा गया है कि जिस समय भगवान महावीर के कान से खीले खींच कर निकाले गये उस समय उन्हें इतनी अधिक वेदना हुई थी कि उनके मुख से ऐसी तेज ध्वनि ( चीख ) निकली कि जिस पहाड़ी के तले वे काउसग्ग में खड़े थे उसमें दरार पड़ गयी। आज के युग में इस बात को शायद ही कोई विरला व्यक्ति मानने पर तैयार हो; पर अधिकांश मानने को तैयार नहीं है। संगीत की ध्वनि में इतनी शक्ति है तथा आकर्षण है कि वह बड़े-बड़े पहाड़ों में भी दरारें पैदा कर देती है। प्राणियों को "संगीत” ध्वनि तरंगों के अनुसार सात्विक, राजस तथा तामस प्रकृतियों में बदल देता है । fन तरंगों का कितना अकाट्य प्रभाव पड़ता है जिसका साक्षात्कार हमें नृत्य में और सरकसों में, मौत की सीढ़ी पर चढ़ने वालों में लड़ाई में अनेक कर्त्तव्यों को देखकर होता है । शास्त्रों में जो लिखा गया है कि ध्वनि से अनेक बीमारियां कट जाती हैं; उसे आज वैज्ञानिक भी स्वीकार करते हैं । प्रश्न यहां यह रह जाता है कि भगवान महावीर ने तथा इनके पूर्व में जितने भी तीर्थकर हुये वे सभी ने "मालकोश" की ध्वनि में हो क्यों प्रवचन दिये हैं। इस विषय के लिये जिज्ञासुओं को चाहिये कि नंदी सूत्र, आवश्यक भाव्य द्रव्यानयोग और भगवती सूत्र आदि आगमों को सूक्ष्म दृष्टि से देखें इसका सामान्य एक कारण यह भी है कि मालकोश राग में तेज तत्व विशेष रूप से रहे हुये हैं। वैशेषिक जिसके कर्त्ता कणाद, न्याय सूत्र जिसके कर्त्ता गौतम हैं तथा तर्क-संग्रह जिसके कर्त्ता अन्नभट्ट है, उन्होंने अपने ग्रंथों में तेज का स्वरूप Jain Education International बताते हुये बताया कि तेज में एक विशेष नित्य समवाय संबंध तेज-गुण, रूप रहा हुआ है, वही रूप, तेज, हर प्राणी को आकर्षित करता है और उसको ग्रहण करने वाली आँख है । इन सब बातों से यह सरलता से समझ में आ सकता है कि मालकोश की ध्वनि का यही अभिप्राय है कि मानव के अन्दर अज्ञान, अंधकार, मिथ्या ज्ञान, अविवेक जो रहा हुआ है उसे निकालने के लिये तेज शक्ति ताप और वैसे ही रूप की आवश्यकता रहती है कि वह अंधकार रूपी मिथ्याभिमान से निकलकर वास्तविक अपने स्वरूप को देखे और उस तेज को ग्रहण कर अंधकार से छुटकारा पाये कहावत भी है कि जिसके चहरे और वाणी में तेज (नूर) नहीं, वह नर होते हुये भी नराधम है। हम आप सभी यही बात कहते हैं कि सामान्य मानव की वाणी कितनी गंभीर और तेजपूर्ण है कि उसके वाणी को सुनकर क्रूर से क्रूर हिंसक प्राणी भी; जिस तरह आंच पाकर लोहा पिघल कर बहने लगता है, उसी प्रकार उसमें भी रहे हुये बुरे विचार पिघलकर बहने लगते हैं । ऐसी अवस्था में यदि हम मिथ्या अभिमान को एक बाजू में रखकर शान्त चित्त से विचार करें तो वास्तविकता हमारे समझ में आ जावेगी कि सामान्य जन की वाणी में ध्वनि का इतना प्रभाव है तो जो तीर्थकर या अवतारी पुरुष या भगवान होते हैं उनकी वाणी की ध्वनि कितनी तेज युक्त रहती होगी कि उस वाणी के प्रभाव से तीनों लोक के प्राणी अपनी भूलों को स्वीकार करके उनके चरणों में मस्तक झुकाकर अपने को अहोभाग्य समझते हैं। जैन दर्शन संसार को जब अनादि - अनंत मानता है तब यह कथन प्रागेतिहासिक काल का हो जाता है। इसलिये हम ऐतिहासिक दृष्टि से इसके विषय में भगवान महावीर की उपस्थिति में संगीत का जैन दर्शन में कितना स्थान था इसी को लक्ष्य कर ही इसका प्रतिपादन करते हैं । आगमों में जो संकलन किया गया वह क्रमबद्ध न होकर प्रसंगानुसार पाया जाता है। हमारे सामने इस समय जो संकलन है वह वाचना देववृद्धि १७३ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012001
Book TitleTirthankar Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Malav
PublisherJivaji Vishwavidyalaya Gwalior
Publication Year
Total Pages448
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy