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________________ जैन पुरातत्व एवं कला मधुसूदन नरहरि देशपान्डे जब हम प्राचीन भारतीय स्थापत्य-शिल्प और चित्र- रहती है, लेकिन इस शैली के ऐसे परिवर्तन में आशय, कला के विकास का विहंगावलोकन करते हैं तब हमें एक प्रेरणा और प्राणतत्व की दृष्टि से मूलभूत परिवर्तन कमी विशिष्टता प्रतीत होती है कि इन कलाओं के विकास होता ही नहीं । अपितु परिवर्तन के स्वरूप में परिवर्धन, का एक अखण्ड और शक्तिशाली प्रवाह रहा है। जो संशोधन और संवर्धन होता है। इसीलिए मारतीय लोग ऐसा समझते हैं कि बौद्ध, हिन्दू और जैन धर्मा- कला के प्रांगण में आशय, प्रेरणा और प्राणधिष्ठित कला का पृथक-पृथक् प्रवाह रहा है; वास्तव में तत्व की दृष्टि से सर्वत्र एकरूपता ही दृष्टिगोचर होती उनको भारतीय संस्कृति का मर्म ही ज्ञात नहीं है, ऐसा है। ऐसे कला-प्रवाह में अलग-अलग स्रोत की कल्पना कहना पड़ेगा। भारतीय कला के विकास में धार्मिक करना, वैसा ही हास्यास्पद होगा, जैसा कि त्रिवेणी स्थलों को सौन्दर्य पूर्ण विकास करने की भावना, मूति- प्रवाह से गंगा, यमुना और सरस्वती के स्रोतों को पूजा और तदनुसंगिक धर्माचरण में प्रेरणादायक होती अलग करना। भारतीय संस्कृति के गर्भ से पैदा हुए है। राजा हो या धनिक दाता हो या सामान्य मानव आचार, विचार और संस्कारित हुए कलात्मक मानहो, हर एक ने अपनी-अपनी रुचि के अनुरूप भारतीय बिन्दु, जब तत्कालीन कला माध्यम से अपना रूप संस्कृति के कला भण्डारों से अद्भुत एवं सुन्दर रत्न धारण करते हैं तब उनमें पृथकत्व देखना भारतीय निकाले हैं। और अपनी-अपनी निष्ठा और श्रद्धा के कला संस्कृति की महती परंपरा पर अन्याय करने के अनुरूप कलात्मक वस्तु या वास्तु का निर्माण किया समान है। है; उन सभी का मूल्यांकन और रसास्वादन भी भारतीय कला के आविष्कार के रूप में ही होना चाहिए। हर एक जैसा कि ईसा पूर्व तीन शताब्दि से मथुरा नगरी शैली में कम या अधिक वैशिष्ट्य जरूर होता है परन्तु बौद्ध, हिन्दू और जैन कला का मायका माना जाता भारतीय कला के पुष्पहार में धर्मनिष्ठ पृथकत्व की है। परन्तु वहाँ की कला “भारतीय कला" इसी नाम कल्पना करना सर्वथा अयोग्य और अनुचित है। वैसे से जानी पहचानी जाती है। वहाँ उक्त तीनों धर्म देखा जाय तो शैली भी कालानुरूप परिवर्तित होती प्रचलित थे। अपने-अपने धर्म के अनुयायी अहमहमिका १५५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012001
Book TitleTirthankar Mahavira Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Malav
PublisherJivaji Vishwavidyalaya Gwalior
Publication Year
Total Pages448
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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